*तेवरी, तेवरी है- ग़ज़ल नहीं*
( तेवरीकार रमेशराज से प्रसिद्ध सहित्यसाधक राजीव कुमार झा की बातचीत )
*रमेशराज जी ! आप हिंदी कविता में तेवरी लेखन के लिए प्रसिद्ध हैं . आज तेवरी के बारे में बारे में बताएँ . यह कैसे लिखी जाती है और आपका तेवरी लेखन से कैसे लगाव कायम हुआ?*
*उत्तर-*
आदरणीय राजीव जी तेवरी को समझने के लिए आवश्यक यह कि सर्वप्रथम हम यह समझ लें कि ग़ज़ल शास्त्रसम्मत पहचान और उसका शब्दकोशीय अर्थ क्या है?
*‘‘ग़ज़ल मूलतः अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है-‘नारी के सौन्दर्य का वर्णन तथा नारी से बातचीत’।* नालंदा अद्यतन कोष में ग़ज़ल का अर्थ [ फारसी और उर्दू में ] ‘ शृंगार की कविता’ दिया गया है। लखनऊ हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित 'उर्दू-हिन्दी शब्दकोष' में ग़ज़ल का अर्थ-‘प्रेमिका से वार्तालाप है।’
डॉ. नीलम महतो का भी मानना है-‘ ग़ज़ल अरबी शब्द है जिसका अर्थ-‘सूत का ताना है। जब यह शब्द स्त्रियों के सन्दर्भ में प्रयुक्त होता है तो उनसे प्रेम-मोहब्बत की बातें करना हो जाता है। उनकी सुन्दरता की तारीफ करना हो जाता है। उनके साथ आमोद-प्रमोद करना हो जाता है।’’ {तुलसी प्रभा, सित-2000 पृ. 18}
अब हम आते है तेवरी के शब्दकोशीय अर्थ पर-
*' वृहद हिंदी शब्दकोश ' [ सम्पादक- कालिका प्रसाद ] के षष्टम संस्करण जनवरी - १९८९ के पृष्ठ -४९० और ४९३ पर तेवर [ पु . ] शब्द का अर्थ - ' क्रोधसूचक भ्रूभंग ', ' क्रोध-भरी दृष्टि ' , ' क्रोध प्रकट करने वाली तिरछी नज़र ' बताने के साथ-साथ ' तेवर बदलने ' को - ' क्रुद्ध होना ' बताया गया है | ' तेवरी ' [स्त्री. ] शब्द ' त्यौरी ' से बना है | त्यौरी या ' तेवरी ' का अर्थ है - ' माथे पर बल पड़ना ' , ' क्रोध से भ्रकुटि का ऊपर की और खिंच जाना ' |*
*तेवरी के बारे में डॉ हरिवंश प्रसाद मधुकर जी का मानना है कि-*
जहाँ तक तेवरी के शाब्दिक अर्थ, उसके आत्मरूप अर्थात् चरित्र की बात है तो-‘‘ तेवरी’ शब्द ही अपने आप में परिभाषा, स्वरूप तथा स्वतंत्र अस्तित्व-बोध का परिचय देता है। वस्तुतः तेवरी-अर्थात् तेवरवाली अभिव्यक्ति से परिपूर्ण रचनात्मक नवचेतना का प्रतीक है। अभिव्यक्ति की भंगिमा, व्यंजना का स्वरूप तथा दृश्य जगत के युगीन यथार्थ की आन्तरिक बोध-शक्ति का अनुभव और चिन्तन की गहराई से उद्भूत होकर उपस्थित होती है। जिसमें युगीन विसंगतियों, मानव-जीवन के अस्तित्व के संकट से उत्पन्न प्रतिक्रिया स्वरूप आक्रोश, क्रोधदि के यथार्थ-चित्र हमें उद्वेलित एवं संत्रास्त जीवन के विविध पक्षों को साकार करते हैं। तेवरी में अभिव्यक्ति की भंगिमा ही मुख्य रूप से उसे काव्य-रचना की सतत प्रवाहवान धारा में नया स्थान प्रदान करने की व्यापक योग्यता रखती।’’ *[ डॉ . हरिवंश प्रसाद शुक्ल ‘मधुकर’, ‘तेवरीपक्ष,जन.-मार्च-07, पृ. 15]*
हमें यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं है कि तेवरी की जननी ग़ज़ल ही है। और इसी कारण इसमें अपनी माँ जैसी शारीरिक संरचना मिलती है। किंतु दोनों के आत्म,कर्मक्षेत्र अथवा यूँ कहें कि चरित्र एकदम भिन्न है।
तेवरी एक ऐसी विधा है जिसमें जन-सापेक्ष सत्योन्मुखी संवेदना अपने ओजस स्वरूप में प्रकट होती है। तेवरी का समस्त चिन्तन-मनन उस रागात्मकता की रक्षार्थ प्रयुक्त होता है, जो अपने सहज-सरल रूप में नैतिक, निष्छल, निष्कपट और प्राकृतिक है। रागात्मकता की यह प्राकृतिकता आपसी प्रेम, भाईचारे अर्थात् मानवीय सम्बन्धों की प्रगाढ़ता, सद्भाव के मंगलकारी विधान में अभिवृद्धित , अभिसंचित, पुष्पित-पल्लवित और उत्तरोत्तर विकसित होती है। प्रेम-तत्व का उद्दात्त, सदाचारी, सर्वमान्य रूप या स्वरूप यदि मर्यादा का पालन करते हुए शोभायमान हो तो तेवरी के लिए सहज ग्राहय है। तेवरी प्यार का नहीं, प्यार के व्यापार का विरोध करती है। तेवरी शृंगार के नहीं, पापाचार या व्यभिचार के खिलाफ अपनी त्यौरी बदलती है। यही तेवरी का तेवरीपन है।
तेवरी के इसी चरित्र की वास्तविक पहचान करते हुए *"सहज कविता" के प्रख्यात संस्थापक और जानेमाने विष्वविख्यात संस्थापक डॉ रवींद्र भ्रमर मानते है कि-तेवरी युवा आक्रोश की तीसरी आँख है।*
वे कहते हैं कि-
अलीगढ़ के बुद्धिजीवीवर्ग के बीच आयोजित श्री बेज़ार की काव्यकृति ‘एक प्रहारः लगातार’ के विमोचन-समारोह की अध्यक्षता का भार मुझे सौंपा गया। इसके लिये ‘सार्थक-सृजन प्रकाशन’ के नियामक और ‘तेवरी’ के सूत्रधार श्री रमेशराज का मैं विशेष आभारी हूँ। उक्त अवसर पर मैंने ‘तेवरी’ को ‘युवावर्ग की तीसरी आँख’ की संज्ञा दी थी।
पुराण-पुरुष शिव की तीसरी आँख जब खुलती है तो किसी ज्वालामुखी की भांति तप्त लावा उगलती है और पाप का प्रत्यूह तथा कामाचार का अवरोध जलकर राख हो जाता है। ध्यान-मग्न शिव की समाधि बड़ी मुश्किल से टूटती है लेकिन जब कभी ऐसा होता है तो कोहराम मच जाता है-कृत्रिम वसन्त में आग लग जाती है। तेवरी के शब्द-संधान को देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा है कि वर्तमान सामाजिक विसंगतियों और सामाजिक विद्रूपताओं में आग लगाने के लिये युवा-आक्रोश की तीसरी आँख खुल गई है।
विश्व-वाड्.मय का इतिहास साक्षी है कि कविता से फूल और त्रिशूल दोनों का काम लिया गया है। सामाजिक क्रान्ति के सन्दर्भ में कवि की कलम हरसिंगार की टहनी में तलवार उगा लेती है। आज के सामाजिक जीवन में जो अन्याय, उत्पीड़न और शोषण की विभीषिका है, उसी के समानान्तर युवा कवियों की कलम अन्याय की शृंखला को काटने के लिए अत्याचार और शोषण के पूँजीवादी प्रपंच को जलाने के लिये तेवरी के माध्यम से बारूदी भूमिका तलाश कर रही है।
तेवरी की इसी चारित्रिक पहचान को स्पष्ट करते हुए *डॉ विशन कुमार शर्मा स्पष्टरूप से घोषणा करते हैं कि-*
तेवरी का उद्भव एक ऐसे समाज की देन है, जिसे विशेष रूप से राजनेताओं ने सताया है। जैसे-कोई स्वतंत्र सिंहों की वनस्थली में मदमस्त हाथी अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहे। लोकतंत्र का प्रत्येक मानव स्वतंत्र सिंह है और नेता मदमस्त हाथी। उसका प्रभुत्व तभी तक है, जब तक कि चुनाव का चपेटा लोकतंत्र के मानव रूपी सिंहों के द्वारा मदमस्त हाथी के कानों पर नहीं पड़ता। ‘तेवरी के कवि’ इस ‘चपेटे’ को नेता के कानों पर बुरी तरह से पड़वाने की तैयारी कर रहे हैं। एक प्रकार से तेवरी का सबसे प्रबल पक्ष शोषकवर्ग पर कुठाराघात करना ही है। यद्यपि अन्य कुछ सामाजिक पक्ष भी ‘तेवरी’ के अपने मूल मुद्दे हैं। हिंसा, बलात्कार, मुनाफाखोरी भी इसकी विशिष्ट प्रवृत्ति को प्रकट करते हैं। और इन सबके मूल में हैवानियत को खरीदने वाला वह नेता ही है।
चूंकि *ग़ज़ल का अर्थ है - ' प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत '* , जबकि तेवरी का अर्थ है - ' कुव्यवस्था का विरोध ', इसी कारण तेवरी को समकालीन यथार्थ की सत्योंमुखी प्रस्तुति के रूप में माना - स्वीकारा गया है |
*तेवरी का स्थायी भाव ' आक्रोश ' और इससे बनने वाले रस का नाम ' विरोध ' है |* जबकि
ग़ज़ल एक प्रणय - गीत होने के कारण शृंगार रस की विधा है |
*ग़ज़ल की सम्पूर्ण व्यवस्था में एक ही बहर अर्थात् छंद का समावेश किया जाता है , जबकि तेवरी के हर तेवर [कथित शे'र ] में दो छंदों का समावेश कर सम्पूर्ण तेवरी को दो - दो छंदों में भी लिखा जाने लगा है |*
तेवरी की पहली , तीसरी , पाँचवीं , सातवीं ....पन्क्तियों में मान लो यदि कोई सोलह मात्राओं का छंद निर्धारित किया गया हो तो दूसरी , चौथी , छठी , आठवीं ... पन्क्तियों में 14 , 18 , 25 , 30 मात्राओं का अन्य छंद प्रयोग में लाया जा सकता है | इस प्रकार ग़ज़ल के छंद से अलग विशेषता वाला पृथक दो पन्क्तियों [कथित मिसरे ] का तेवर [कथित शे'र ] बनाया जा सकता है | तेवरियों में इस विशेषता का आलोक आपको अवश्य मिलेगा | तेवरियों में एक नहीं अनेक नये छंदों का मकरंद आप सबको चकित कर सकता है | नया या नये छंद का नाम क्या है या होना चाहिए , सुधिजन जानें |
तेवरी के हर तेवर में एक नहीं दो-दो स्वरांत [कथित काफिये ] भी अब तेवरी की शोभा बढ़ाने लगे हैं , जबकि ग़ज़ल के हर शे'र में एक ही काफिया आता है | ठीक यही व्यवस्था तेवरी के समान्त [ कथित रदीफ़ ] पर भी लागू होती है |
कहीं - कहीं ग़ज़ल के रदीफ़ - काफियों जैसी व्यवस्था यदि तेवरी में दृष्टिगोचर होती भी है तो यह व्यवस्था ' कवित्त ' में भी मिलती है | क्या ' कवित्त ' को ग़ज़ल कहने या मानने का साहस किसी में है ??
*तेवरी में गीतात्मकता पायी जाती है* अर्थात् इसके सारे तेवर एक दूसरे के पूरक बनकर सम्पूर्ण कथ्य को पूर्णता प्रदान करते हैं, जबकि ग़ज़ल का प्रत्येक शे'र अपनी स्वतंत्र सत्ता लिये हुए होता है |
ग़ज़ल से पृथक तेवरी की विशेषताओं को दरकिनार कर अगर कोई ग़ज़ल का जानकार तेवरी को फिर भी ग़ज़ल मानता है तो उसे 'नाटक ' और ' एकांकी ' , 'लघुकथा ' और ' लघुकहानी ' तथा 'चुटकला ' और ' व्यंग्य ' के अन्तर को ध्यान में रखते हुए यह बताना ही चाहिए कि ग़ज़ल की हू - ब - हू नक़ल ' हज्ल ' ग़ज़ल से अलग विधा कैसे और क्यों है ??
*अपने प्रिय लेखकों और कवियों के बारे में बताएँ ?*
*उत्तर-*
हिंदी साहित्य की समीक्षा और आलोचना के क्षेत्र में मुझे सर्वाधिक प्रभावित आचार्य रामचंद्र शुक्ल के सूक्ष्म और सार्थक विवेचन ने किया। मुंशी प्रेमचन्द, श्रीलालशुक्ल का कथा साहित्य बेहद ऊर्जावान लगा।
काव्य के क्षेत्र में रामधारी सिंह दिनकर, कुंअर बेचैन, दुष्यंत कुमार के अतिरिक्त पाश और सुदामा पांडेय धूमिल की मुक्तछंद कविताओं में हर प्रकार का ओज महसूस हुआ। उर्दू कवि साहिर लुधियानवी को बहुत उम्दा शायर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।
*आप तेवरीपक्ष पत्रिका के बारे में बताएँ ?*
*उत्तर-*
आदरणीय राजीव जी, तेवरी नामकरण और आंदोलन के प्रमुख सूत्रधार डॉ देवराज तथा डॉ ऋषभ देव शर्मा देवराज रहे हैं।
सम्भवतः 1980 या 81 का काल रहा होगा, तब ग़ज़ल के समानांतर तेवरी शीर्षक से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हो रही थीं। उस समय मैं बालगीत अधिक लिखता था और वे बालगीत भारतवर्ष की स्थापित व्यावसायिक पत्रिकाओं और पत्रों में निरन्तर छपते थे। उस समय में ग़ज़लें बहुत कम लिखता था। ग़ज़ल के शब्दकोशीय अर्थ *"प्रेमिका से प्रेमपूर्वक बातचीत"* से इतर मेरी ग़ज़लें समकालीन व्यवस्थविरोध को समाहित किये रहती थीं। इस तीक्ष्ण तल्ख, तिक्त अभिव्यक्ति को ग़ज़ल मानने को मेरा मन मुझे बार-बार आशंकाओं में धकेल देता था। जब ग़ज़ल जैसी संरचना में मुझे तेवरी शीर्षक से अन्य कवियों की रचनाएं दिखीं तो मुझे मेरी उक्त उलझन का समाधान मिल गया। मैं भी तेवरी शीर्षक से रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में छपवाने लगा।
इसी बीच खतौली आयोजित "तेवरी सम्मेलन में, तेवरी के पुरोधा *देवराज द्व* ने मुझे आमंत्रित किया।
उस आयोजन में हिंदी के बड़े-बड़े विद्वानों ने शिरकत की।
तेवरी पर दिए गए प्रवचनों और पढ़े गए पर्चो को सुनते हुए मुझे एक ही बात खली कि समस्त विद्वान तेवरी की चर्चा ग़ज़ल की चर्चा किये बिना कर रहे थे, जबकि हिंदी के अधिकांश विद्वान तेवरी को ग़ज़ल ही मानते आ रहे थे। मैंने वहां चर्चा के दौरान कहा कि- *ग़ज़ल ,पर चर्चा किये बगैर यदि तेवरी की स्थापना की जाएगी तो "तेवरी ग़ज़ल ही है" यह भ्रम सदैव बना रहेगा। इसलिए हमें यह तो बताना ही पड़ेगा कि तेवरी आखिरकार ग़ज़ल से किसप्रकार पृथक है?*
एक सही प्रश्न को उस सम्मेलन में जिसप्रकार दरकिनार किया गया, मन बहुत आहत हुआ। और उसी समय हम अलीगढ़ के साथियों ने फैसला लिया कि अलीगढ़ से तेवरी के आत्मरूप और शिल्प को स्पष्ट करने के लिए एक पत्रिका निकाली जाए। लगभग 6 माह के कठोर श्रम के परिणामस्वरूप तेवरीपक्ष का प्रवेशांक और मेरे ही सम्पादन में एक तेवरी-संग्रह-अभी ज़ुबाँ कटी नहीं" साकार रूप में सामने आया, जिसका विमोचन काकोरी कांड के प्रमुख क्रन्तिकारी श्री मन्मथ नाथ गुप्त के करकमलों से हुआ।
बालगीतों के सृजन को छोड़ तेवरी आंदोलन का झंडा सम्हाले आज भी कम से कम मैं तो संघर्षरत हूँ ही। इस पड़ाव तक आते-आते जाने कितने तेवरीकार जुड़े और साथ छोड़ भी गए।
तेवरीपक्ष सीमित साधनों के बीच अब भी यदाकदा प्रकाशित होती रहती है। अब बस मैं यही कहना चाहूंगा कि *तेवरी* नामक दीप को बुझते हुए नहीं देखना चाहता।
*हिंदी का मौजूदा साहित्यिक परिवेश आपको कैसा प्रतीत होता है ?*
*उत्तर-*
हिंदी साहित्य का वर्तमान परिवेश अत्यंत निराशाजनक है। मौलिक और समाजसापेक्ष चिंतन का नितांत अभाव है। आज का रचनाकार या तो मन्च पर चुटकुले बाजी को लेकर व्यस्त और मस्त है। या सियासत की पूंछ पकड़कर साहित्य की वैतरणी पार करना चाहता है। गहन और लोकचिन्ता को लेकर बने अभाव ने भारतीय संस्कृति का जिस प्रकार नया भ्रामक रचाव दिया है, उससे सामाजिक सद्भाव बिखराव और विखण्डन के घावों से भर गया है। सच कहूं तो आज साहित्य के नाम पर जो नाटक जारी है, उसके भीतर एक संक्रामक बीमारी है, जो हमारे सामाजिक ताने-बाने को नष्ट करने पर आमादा है।
*रमेशराज जी अपने पारिवारिक परिचय और साहित्यिक योगदान पर भी थोड़ा प्रकाश डालिए*
*उत्तर-*
मेरा जन्म १५ मार्च सन १९५४ मैं गांव-एसी, जनपद-अलीगढ़, (उत्तर प्रदेश) के एक गरीब परिवार में हुआ। पूरा नाम रमेशचन्द्र गुप्त है । मैंने एम.ए. हिंदी में की। पिताश्री लोककवि रामचरन गुप्त ब्रजभाषा साहित्यकार और स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे।
पिताश्री की विरासत को आगे बढ़ाते हुए मैंने जो साहित्य की सेवा की वह इस प्रकार है-
*सम्पादित कृतियाँ-*
1.तेवरीपक्ष (त्रैमासिक)
2.अभी जु़बां कटी नहीं (तेवरी-संग्रह)
3.कबीर जि़न्दा है (तेवरी-संग्रह)
4.इतिहास घायल है (तेवरी-संग्रह)
5.एक प्रहारः लगातार (तेवरी-संग्रह)
*स्वरचित कृतियां*
*(रस से संबंधित)*
1.तेवरी में रस-समस्या और समाधान
2.विचार और रस (विवेचनात्मक निबंध)
विरोध-रस (शोध-प्रबंध)
3.काव्य की आत्मा और आत्मीयकरण (शोध-प्रबंध)
*तेवर-शतक-(लम्बी तेवरियां)-*
1.दे लंका में आग,
2.जै कन्हैयालाल की, 3.घड़ा पाप का भर रहा
4.,मन के घाव नये न ये , 5.धन का मद गदगद करे,
6.ककड़ी के चोरों को फांसी,
7. मेरा हाल सोडियम-सा है,
8.रावण-कुल के लोग,
9.अन्तर आह अनंत अति,
10.पूछ न कबिरा जग का हाल,
*चर्चित तेवरी-संग्रह*
*(शतक)-*
1.ऊघौ कहियो जाय (तेवरी-संग्रह),
2.मधु-सा ला (शतक),.जो 3.गोपी मधु बन गयीं (दोहा-शतक),
4.देअर इज एन ऑलपिन (दोहा-शतक),
5.नदिया पार हिंडोलना (दोहा-शतक),
6.पुजता अब छल (हाइकु-शतक)
*मुक्तछंद कविता-संग्रह-*
1.दीदी तुम नदी हो,
2.वह यानी मोहन स्वरूप
*बाल-कविताएं*
1.राष्ट्रीय बाल कविताएं
*पुरस्कार और सम्मान-*
‘साहित्यश्री’,अलीगढ़
‘उ.प्र. गौरव’, अलीगढ़
‘तेवरी-तापस’, होशंगाबाद (म0प्र0)
‘शिखरश्री’,अलीगढ़
अभिनंदन-सुर साहित्य संगम, एटा
'परिवर्तन तेवरी-रत्न',बुलंदशहर
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