Tuesday, July 19, 2016

तेवरी के बुनियादी सरोकार +रमेशराज




तेवरी के बुनियादी सरोकार

+रमेशराज
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किसी भी देश या काल के साहित्य के उद्देश्यों में पीडि़त जनता की पक्षधरता इस बात में निहित होती है कि यदि तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में किसी भी प्रकार की विसंगतियां, कुरीतियां पनप गई है, तो उनके निर्मूलन हेतु साहित्य का प्रयोग एक गाल पर तमाचा खाने के बाद दूसरा गाल करने या प्रेयसी की जांघें सहलाने, प्रकृति-चित्रण करने के बजाय संस्कृति और सभ्यता के तस्करों की मानसिकता पर चाबुक बरसाने में ही सार्थक होगा।
प्रेयसी के घुटनों पर लेटकर उसकी धड़कनों के ज्वार-भाटों और चेहरे पर प्रेम-प्रसंगों से चढ़ती-उतरती लालामी को ही यदि सूक्ष्म दृष्टि रेखांकित कर सकती है और उसकी अभिव्यक्ति समाज को विकृतियों से दोषमुक्त कर सकती है, तो हमें अफसोसके अतिरिक्त कुछ नहीं कहना। साथ ही सामाजिक यथार्थ का तल्ख एहसास कोई बे-बुनियाद, वाहियात और स्थूल वस्तु है, जिसका अनुभव सिर्फ अपने अन्दर के मैले को बाहर फेंकने और अपने दोष दूर करने तक ही होना चाहिए, यानि आप भला तो जग भलाको चरितार्थ करना है तो यहां यह भी निवेदन करना चाहेंगे कि जब हम शोषण-व्यभिचार या चरित्रहीनता पर व्यक्तिगत दृष्टि के बजाय सामाजिक दृष्टि रखते हैं, तब भी अपने ही दोषों को सर्वप्रथम टटोलते हैं , क्योंकि हम भी उसी समाज के अंग हैं जिस पर हम प्रहार कर रहे होते हैं। इस स्थिति में यह प्रहार क्या हमारे अपने ऊपर भी नहीं होता?
यदि दृष्टि की व्यापकता या सामाजिकता काजीपन या स्वयंभू होने की स्थिति है तो हमें इस समाज में न रहकर गुफाओं-कन्दराओं में धूनी रमाकर अपनी सूक्ष्म दृष्टि के परीक्षण करते रहना चाहिये और अपनी आध्यात्मिकता का दम्भ भरते रहना चाहिये। हमारे देश की विडम्बना यह रही है कि जन-चेतना के लिये जिसने भी पहल की, उसे स्वयंभू, काजी और न जाने किन-किन उपाधियों से विभूषित किया गया।
स्वान्तः हिताय की तथाकथित वांछित साधना, योग और आत्म नियन्त्रण की साधना बनकर जब-जब साहित्य में उतरी, तब-तब उस साहित्य ने समाज को ऐसे सोचके गर्त में डाल दिया, जिसमें मलवा तो हर जगह दिखाई दिया लेकिन उसे बाहर फेंकने की हिम्मत कोई नहीं रख सका। लोगों ने नाक पर या तो अकर्म और भाग्य का रूमाल रख लिया या फिर परमानन्दकी उस स्थिति में पहुंच गये, जिसमें सड़ांध से उठता भभका भी गुलाबों की महक महसूस हुआ।
सामाजिक त्रासदियों के बीच जीवन के सहज आनन्द का ढिंढोरा पीटने वाले अगर देखा जाये तो आज भी वही लोग हैं जिन्हें संटी खाकर बोझा ढोने की गर्दभ परम्पराओं से जुड़े रहकर अपने आचरण से ऐसी परिस्थितियों को जन्म देते रहना है जो युग-युगान्तर आदमी का खून चूसती रहें।
मानव के आचरण की एक-एक इकाई में आमूल-चूड़ परिवर्तन करने या समाज में क्रान्तिकारी संभावनाएं तलाशने के लिये आवश्यक है कि यातनामय, कारुणिक दृश्यों से भयाक्रान्त होकर आंखें मूदने या फोड़ने, चीत्कार के बीच कानों में रुई ठूंसने के बजाय लक्ष्य की प्राप्ति आंखें और कान खोले इसी संसार में रहकर करें। साथ ही साहित्य की प्रासंगिकता उसके यथार्थवादी दृष्टिकोणों से जोड़ें, नहीं तो हम साहित्य की उन्हीं कलात्मक या सौंदर्यवादी रूढि़यों से बंधे रह जाएंगे, जिसमें कबीर की प्रहार क्षमता, आडम्बरों को चुनौती देने की व्यग्रता या पुत्री बेच पिता धन खायो, दिन-दिन मोल सवायो, मोहि कहा तेरी सीकरी सों काम, खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि... कहे एक-एक न सों कहां जाई कहा करी’  ‘एक न को मेवा मिलै एक न को चने भी नाहिं’ ,‘सब जादे मिटि के हरामजादे हो रहे तथा अली-कली ही सों बंध्यौ आगे कौन हवाल में हमें कोई तिरोभाव दिखाई नहीं देगा। बिस्मिल, अशफाक, भगतसिंह को साहित्यकार मानता तो दूर, उनका जिक्र करना भी पसन्द नहीं करेंगे। और बेचारे रहीम को गैर साम्प्रदायिक होने के नाते ही काव्य का दूसरा कबीरस्वीकार ही नहीं पाएंगे | हम साहित्य के ठेकेदार और पंडित जो ठहरे। धूमिल की  कविताओं को हम मात्र गाली-गलौज ही मानेंगे, [जैसा कि अलीगढ़ की एक डिग्री कालिज के एक हिन्दी प्रवक्ता तथा  प्रकाशक के मुख से हमें सुनने को मिला, जब हम संसद से सड़क तकउनके यहां से खरीदने गये] क्योंकि हमें सौन्दर्यानुभूति उसी साहित्याभिव्यक्ति में होती है जो कोमल, कर्णप्रिय और तिरोभाव से मुक्त होती है। ऐसे तथाकथित साहित्यकारों से हम पूछना चाहेंगे कि दहेज लालचियों द्वारा मिट्टी का तेल छिड़ककर जलाए जाने वाली बहू या बलात्कारियों के बीच छटपटाती नारी की चीत्कार या डकैतों द्वारा एक परिवार पर किये गये लाठी चाकू और कट्टे से प्रहार की करुण-गाथा का वे कौन-से लालित्यपूर्ण, कोमल और सुन्दरतम शब्दों में व्यक्त करना चाहेंगे? तथा ऐसी यातनामय स्थितियों के बीच वे साहित्य का कौन-सा कलापक्ष टटोलेंगे?
यदि कोई साहित्यकार ऐसी स्थितियों में कुव्यवस्था के प्रति सब कुछ कहने का अधिकारी होता है, कलुषता को ललकारता है तो वह वाद, खेमे, विधा का झंडा उठाए, बाल बिखेरे, कफन का उत्तरीय कन्धे पर डाले, कविता और साहित्य को कितना और कैसे नष्ट कर देगा? यह सोचने का विषय है?
वक्त के साथ यदि हमारी रूढि़वादी मान्यताएं न बदलीं और हम मीरा की तरह प्रेम दीवाने होकर जहर पीते रहे, तुलसी की तरह कोऊ नृप होई हमें का हानीकी रट लगाते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब कविता या साहित्य नष्ट हो न हो, रही सही इन्सानियत [यदि है तो] जरूर नष्ट हो जाएगी। तब हमारे सौन्दर्यवादी, अत्याचारी वातावरण के बीच सहज आनन्द को प्राप्त होने वाले रचनाकार साहित्य को कौन से आत्मशुद्धि के दौने में रखकर चाटेंगे? यह तो आने वाला समय ही बताएगा?
साहित्य का बुनियादी सरोकार सामाजिक चरित्र की सार्थक अभिव्यक्ति के साथ-साथ उसे परमार्जित करने में भी होना चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि साहित्य समाज के उस हर चरित्र को जिये जो कहीं न कहीं समाज की संवेदना को छूता है। इस संदर्भ में तेवरी ने समाज के उस दलित, शोषित, पीडि़त जन के चरित्र को जीया है जो भीतर ही भीतर सभ्यता को सौदागरों, राजनीति के ठगों, धर्म और समाज के ठेकेदारों के हत्यारे षडयन्त्रों के बीच मुक्त होने के लिए छटपटा रहा है।
जहाँ तक ग़ज़ल का ताल्लुक है तो वह सदियों से खास आदमी के चरित्र जुड़ी रही है,  जो तेवरी की मान्यताओं, जीवन-मूल्यों के एकदम विपरीत है। ग़ज़ल के साथ सामाजिक दायित्वों या अभिव्यक्ति का ढिंढोरा पीटने वाले रचनाकार सुषमा, सरिता, सारिका, जाहनवी, धर्मयुग, कादम्बिनी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और समस्त लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित लैला-मजून के किस्सों की गौरवगाथाओं का बखान करने वाली ग़ज़लों में कौन-सा सामाजिक दायित्व टटोलेंगे? इमली को आम बताकर, इमली का स्वाद आम की तरह चखने वाले रचनाकारों की पता नहीं कब यह बात समझ में आएगी कि मदिरा से भरे हुए प्याले का जाम कहा जाता है जहर से भरे हुए प्याले को नहीं। यदि ऐसे रचनाकार जहर को जाम की तरह अधरों  से लगाने के आदी हो गए हैं तो इनकी बुद्धि पर तरस खाने को जी करता है। वरना स्वतंत्राता आन्दोलन के अगुआ भगत सिंह, चन्द्रशेखर, गांधी और गोखले में, कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई और अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाली रानी लक्ष्मीबाई, मादाम कामा में तथा प्रधान मन्त्री के रूप में लालबहादुर शास्त्री और नेहरू में, एक शासक के रूप में सम्राट अशोक और हिटलर में कुछ तो अन्तर करना ही पड़ेगा। वे साहित्य और समाज के उस चरित्र को किस आधार पर नकारना चाहते हैं जो प्रवृत्तियों, दायित्वों, कर्तव्यों के आधार पर भिन्नता लिये हुए है?
लिखाई की एक-सी वस्तुओं जैसे-पेन, पेन्सिल और होल्डर, प्यार वासना की तृप्ति के साधन पत्नी, प्रेमिका, रखैल, वैश्या और कॉलगर्ल, सब्जी पकाने के पात्र कढ़ाई, केतली, डेगची, भगौना व कुकर, रोटी सेकने के साधन चूल्हा, अंगीठी, स्टोव, लक्ष्य तक पहुंचाने वाले मार्ग सड़क, पगडन्डी, दगड़ा, परिवहन के साधन ट्रक, टैक्सी, ट्रेन, बस, गाड़ी, रथ, हेलीकाप्टर व हवाई जाहज, सिंचाई के साधन रहट, पुर, ट्यूबबैल व ढैकुली आदि में कोई अन्तर नहीं होता है? यदि बात मात्र कविता ही कहने से चल जाती तो दोहा, सवैया, घनाक्षरी, गीत, नवगीत, कविता, पद, भजन, ग़ज़ल, हज़ल, कलमा, मर्सिया, नज्म आदि नामों से पुकारने की क्या अवश्यकता थी? और काव्य को प्राचीन, भक्ति कालीन, रीतिकालीन, छायावादी, प्रगतिवादी, प्रयोगवादी, नई कविता आदि खानों में समीक्षकों तथा आलोचकों ने किस आधार पर और क्यों बांटा? दूसरी तरफ कबीर, तुलसी, सूर, विद्यापति बिहारी आदि की कविताओं को उनके नाम से पुकारने के बजाय मात्र कवि कीकहकर अपना काम नहीं चला सकते?
जिन लोगों को सामाजिक और साहित्यक चरित्र की पहचान नहीं है, ऐसे लोग आदमी, मनुष्य और पुरुष, जल और पानी में कोई अन्तर स्पष्ट कर पाएंगे, संदिग्ध ही नहीं, असम्भव-सा प्रतीत होता है।
यही बात तेवरी और ग़ज़ल में सीमा रेखा खींचते हुए तेवरी के कथ्य पर प्रकाश डालने के उपरान्त तेवरी के शिल्प खासतौर से छन्द पर यहां चर्चा करना आवश्यक है।
तेवरी के किसी भी छन्द की रचना करते समय स्वर और लय की आवश्यकता होती है। जबकि उर्दू में गजल लिखने के लिये लय के साथ वज्न अर्थात बहर पर ध्यान देना जरूरी होता है। उदाहरणार्थ- एक साहब ने दूसरे साहब से नीचे का मिसरा देकर गिरह लगाने के लिए अर्थात इसकी जोड़ का दूसरा मिसरा कहने को कहा-
जो बात की खुदा की कसम लाजवाब की
दूसरे साहब ने तुरन्त ही मजाक में नीचे वाला मिसरा जवाब में कहा-
जूते में लगाई है किरन आफताब की
दोनों मिसरों में बाईस-वाईस मात्राएं हैं, लय भी एक-सी है, इसलिए हिन्दी कवि दूसरे मिसरे को ठीक बता देगा, परन्तु उर्दू बहरों के हिसाब से पहले मिसरे का वजन मफऊल फाइलात मफाईलु फाइलुनतथा दूसरे का मफऊल मफाईलु मफ़ाइलु फाइलुनहै’’ [संदर्भ-सरल पिंगल  प्रवेशिका- श्री प्यारेलाल वृष्णिः]
इस आधार पर तेवरी और ग़ज़ल के छन्द यदि बारीकी से देखा जाये  तो किंचित साम्य नहीं रखते। एक तरफ जहां उर्दू में बहरें हैं, ठीक उन्हीं के समान हिन्दी काव्य में छन्द भी है। उदाहरणार्थ-
चैपाई-15 मात्रा की होती है जिसके अन्त में गुरु लघु होता है। वैतालिक [श्री हरगंगा] इसी ध्वनि में गाया जाता है-
कवसों विप्र खड़ौ जिजमान, दानी को धन दें भगवान।
इसी छन्द में उर्दू की यह बहर है- फाअ फैलुन फाअ फऊल- आज दिखादो दीद हुजूर।
पीयूष छन्द का हर एक चरण 19 मात्रा का होता है तथा अन्त लघु गुरु होता है।- नाक का मोती अधर की क्रांति से, बीज दाडि़म का समझकर भ्रान्ति से।[साकेतमैथलीशरण गुप्त]
ठीक इसी तरह फाइलातुन, फाइलातुन, फाइलुन [इब्तिदा-ए-इश्क है रोता है क्या-गालिब] गजल की एक बहर भी है।
 इसके अतिरिक्त विजात [मुतदारिक], शक्ति [मुतकारिब-उपभेद], सगुण [मुतकारिब-उपभेद], सुमेरू [हजज महजूफज] , प्रिय [सालिम, बिहारी [हजज मकसूर], दिग्पाल [मजारअ अखरब], गीतिका [रमल महजूफ], हरिगीतिका [रजज], फूलमाला [रमल], विधाता [सालिम], खरारी [मुस्तजाद], झूलना [मुतदारिक] आदि हिन्दी के छन्द अनेक आगे कोष्ठक में लिखी ग़ज़ल की बहरों के [सतही रूप से] समान ही है, अगर अन्तर है तो वजन और स्वर-लय के बीच।
इस आधार पर किसी भी ग़ज़ल की तरफदारी करने वाले रचनाकारों  का यह कहना कि तेवरी छन्द के आधार ग़ज़ल ही है, अतार्किक है | कयोंकि तेवरी के छनद अपने हैं और गजल की बहरें उसकी अपनी। लेकिन अफसोस तो इस बात का है कि तेवरी पर अधकचरेपन का लांछन लगाने वाले अधिकांश वे ही तथाकथित ग़ज़लगो हैं जिन्हें न तो गजल लिखने की तमीज या जानकारी है न तेवरी की।
यदि ऐसे लोग मात्रा रदीफ- काफिये [तुकान्तों] के आधार पर तेवरी को ग़ज़ल मानते हें तो हम उनसे पूछना चाहेंगे कि वे कवित्त और पदों को भी ग़ज़ल क्यों नहीं रख लेते? ग़ज़ल के रदीफ, काफियों के समान इनमें भी  रदीफ़-काफिये मौजूद हैं, यथा -
पद-
भक्ति का मारग छीना रे।
नहिं अचाह नहीं चाहना, चरनन लौ लीना रे।।
कहैं कबीर मत भक्ति का परगट का दीना रे।।
कवित्त-
शोभा को, सदन, ससि बदन मदन कर
बंदै नरदेव कुवलय वरदाई है।।
पावन पद उदार, लसित हंसक मार
दीपति जलजहार, दिस-दिस धाई है।।
तिलक चिलक चारु, लोचन कमल रुचि
चतुर-चतुर मुख, जग जिब भाई है।।
अमल अंबर नील, लीन पीन पयोधर
केसौदास सारदा कि,सरद सुहाई है।। केशवदास
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630   

माना नारी अंततः नारी ही होती है..... +रमेशराज





माना नारी अंततः नारी ही होती है.....

+रमेशराज
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किसी भी काव्य-रचना की उपादेयता इस बात में निहित होती है कि उसके प्रति लिये गये निष्कर्ष वैज्ञानिक परीक्षणों पर आधारित हों। वैज्ञानिक परीक्षणों से आशय, उसके कथ्य और शिल्प सम्बन्धी चरित्र को तर्क की कसौटी पर कसना, जांचना, परखना होना चाहिए। उक्त परीक्षण के अभाव में जो भी निष्कर्ष मिलेंगे, वे साहित्य में व्यक्त किये गये मानवीय पक्ष का ऐसा रहस्यवादी गूढ़ दर्शन प्रस्तुत करेंगे जिसमें कबीर या कबीर जैसे रचनाधर्मिता का कोई महत्व नहीं होगा। अतार्किक दर्शन से चिपके लोग यदि ऐसे रचनाकारों को सरकार और सुविधाभोगी कवियों की संज्ञाओं से विभूषित करने लग जायें तो इसमें अचरज जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। क्योंकि जिन लोगों के लिये उनकी निजी समझभी एक रहस्य बनी हुई है, वे उन परम्पराओं से क्यूं कर कटना चाहेंगे, जिनके तहत पूरे समाज को उस सचसे काटकर अलग कर दिया गया है या किया जा रहा है, जिसे वैज्ञानिक सचकहा जाता है।
यदि हिन्दी का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन किया जाये तो यह बात एकदम साफ हो जाती है कि उर्दू, हिन्दी की ही एक शैली या बोली मात्र है, जिसमें अरबी-फारसी के शब्दों का बहुतायत से प्रयोग मिलता है। डॉ. कमल नारायण टंडन के अनुसार-‘‘फारसी तुर्की आदि हिन्दी से अधिक जटिल थीं। इसलिए हिन्दुओं में इन भाषाओं के सीखने के शताब्दियों पहले, मुसलमानों ने हिन्दी बोलना सीख लिया था। वे इसमें कविता भी करने लगे थे... उर्दू कभी किसी भाषा से नहीं निकली बल्कि... हिन्दी का ही नाम उर्दू रख लिया गया।’’ उन्होंने अपनी इस बात को पुष्ट करते हुए आगे लिखा है-‘‘ उर्दू में सब क्रियाएं हिन्दी की ही हैं... केवल संज्ञा-शब्दों के आधार पर कोई भाषा नयी नहीं कही जा सकती... उदाहरण के लिये अगर उर्दू-फारसी पढ़ा व्यक्ति कहता है-‘‘ मैं कलकत्ते से रवाना हुआ और जुमा को सबेरे की गाड़ी से इलाहाबाद पहुंच गया, मरीज को देखा उसके जीने की उम्मीद नहीं है’’ तो इसी बात को एक ग्रेजुएट इस तरह बोलता है-‘‘ मैं कलकत्ता से चला, फ्राइडे को मार्निंग की ट्रेन से इलाहाबाड पहुंचा। पेशन्ट को देखा, वह होपलेस कंडीशन में है।“ यदि उक्त मुसलमान की भाषा का एक अलग नाम उर्दू रखा जाएगा तो उस ग्रेजुएट की भाषा का क्या नाम होगा? हम तो दोनों को हिन्दी ही मानेंगे। जब हिन्दी-उर्दू का व्याकरण एक है, तब उर्दू स्वतन्त्र भाषा कैसे हो सकती है।’’ [उर्दू साहित्य का इतिहास, ले.-डॉ. क.ना. टंडन]
जब यह भाषा वैज्ञानिक कटु सत्य है कि उर्दू हिन्दी ही है, ऐसे में ग़ज़ल के साथ हिन्दी विशेषण लगाकर उसे हिन्दी ग़ज़लबनाना, क्या अज्ञानता का परिचायक नहीं? साथ ही हमारे साम्प्रदायिक होने का द्योतक भी। पूर्व में हिन्दी और उर्दू के नाम पर हमारे साहित्यकारों ने भाषाई अलगाव की नीति अपनाकर जिस तरह की साम्प्रदायिकता खड़ी की थी, अफसोस यह है कि उसी साम्प्रदायिकता की पहल आज हिन्दी ग़ज़लके नाम से की जा रही है।
साहित्यकारों में यह संकीर्णता या साम्प्रदायिकता इस कदर हावी है या रही है कि अरबी-फारसी के शब्दों से युक्त कबीर की रचना हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्यातो ग़ज़ल का श्रेणी में रख दी गयी, जबकि ठीक इस तरह के तथाकथित ग़ज़ल शैली के पद, पद ही माने गये। इसी प्रकार आज तक उक्त शैली से युक्त तुलसी, सूर, मीरा, विद्यापति, घनानंद केशवदास आदि के सवैया, कवित्त, घनाक्षरी आदि छंद ग़ज़ल नहीं स्वीकारे गये।
    यदि कोई इन्हें गीतात्मक शैली के आधार पर ग़ज़ल से अलग करता है तो यही गीतात्मक शैली आज तथाकथित हिन्दी ग़ज़लमें भी दृष्टिगोचर हो रही है। ऐसे में क्या कोई यह बताने का कष्ट करेगा कि यह हिन्दी ग़ज़ल क्या है और इसका शिल्प किस प्रकार का है? क्या हिन्दी ग़ज़ल के पितामह दुष्यन्त से लेकर आज तक इसमें अरबी-फारसी के शब्दों की भरमार नहीं है? यदि है तो इस हिन्दी ग़ज़लको भाषा वैज्ञानिक कसौटी पर क्यों नहीं कसा जा रहा है?
तेवरी को ग़ज़ल कहने वाले रचनाकार अपने पक्ष में कोई तर्क भी प्रस्तुत करेंगे या यूं ही तेवरी या तेवरीकारों को गरियाते रहेंगै। अगर यूं ही अतार्किक बहसें होती रहीं और यह गालीगलौज का सिलसिला जारी रहा तो ऐसे में श्री बाबू राम वर्मा की बात कितनी बात सार्थक महसूस होती है कि -कुछ लोग तेवरी को ग़ज़ल ही मानें तो क्या करोगे? कैसे और किस-किस से लड़ोगे? उन्हें कैसे समझाओगे कि नयी विधाएं समय की मांगानुसार बनती रहती है।
साहित्यिक और सामाजिक चरित्र की पहचान के लिए हमें अपनी समझ तो साफ ही करनी पड़ेगी साथ ही इस सत्य को मानना ही होगा कि माना आदमी अन्ततः आदमी है, फिर भी उसकी पिता, पुत्र, पति, पूंजीपति, सर्वहारा, राजा, प्रजा, नेता, मंत्री, शोषित, शोषक आदि के रूप में कहीं न कहीं सार्थक पहचान निहित है। ऐसा न होता तो आदमी को इन रूपों में प्रस्तुत करने की क्या आवश्यकता थी? ‘आदमी अन्ततः आदमी हैसे अगर ग़ज़लगो यह कहना चाहते हों कि कविता अन्ततः ग़ज़ल है तो हमारा ऐसे लोगों से विनम्र निवेदन है कि पहले वे समाज और साहित्य का अध्ययन करें। तब शायद वह यह बात समझ सकें कि-
 किताब अन्ततः किताब ही है लेकिन उसे पत्रिका, संग्रह, स्मारिका, वेद, गीता, पुराण, कुरान आदि संज्ञाओं से विभूषित करना उसकी चारित्रिक पहचान को दर्शाना है।
पेड़ अन्ततः पेड़ ही है फिर भी उन्हें जड़, पत्ती, शाखा, फूल, से लेकर आम, नीम, बबूल आदि खानों में बांटना जरूरी है।
रस [भाव] अन्ततः रस ही है, किन्तु उसका अनुभव शृंगार, वात्सल्य, वीभत्स, भक्ति आदि रूपों में किया जाता है।
विचार अन्ततः विचार ही होते हैं लेकिन उनकी अभिव्यक्ति नैतिक, अनैतिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक, राष्ट्रीय, अराष्ट्रीय आदि रूपों में होती है।
समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन शास्त्र का मूल आधार मानव व्यवहार ही है फिर भी उसमें सीमा-रेखा खींचा जाना जरूरी है।
नारी अन्ततः नारी ही है फिर भी उसे मां, बहिन, बेटी, बहू, पत्नी, रखैल, नर्तकी, वीरांगना के रूप में पुकारना नारी के अस्तित्व को खंड-खंड करना नहीं है बल्कि उसकी एक सार्थक पहचान बनाना है। यदि इस सार्थक पहचान बनाने वाले व्यक्ति या रचनाकार को ये ग़ज़लगो अपाहिज, महत्वाकांक्षी, गैर जिम्मेदार, नपुंसक आक्रोश का शिकार, साजिशी और शातिर मानते हैं तो ऐसे में सिर्फ यही कहा जा सकता है कि ऐसे लोग मादामकामा, दुर्गा भाभी, कनकलता जैसे देशभक्तों और विरहाग्नि में जलती लैला, शीरी, हीर जैसी प्रेमभक्तों के चेहरों के ओज और अभिव्यक्ति को एक ही तरफ आकना चाह रहे हैं।
ग़ज़लकारों को यदि उन्हें कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई और रानी लक्ष्मीबाई में कोई अन्तर नजर आता है? तो उन्हें वैश्या और वीरांगना में अन्तर स्पष्ट करने में शर्म क्यों महसूस होती है, दम क्यों घुटता है?
यदि ऐसे रचनाकार इस सार्थकता को कोई नाम नहीं दे पाते हैं तो उन्हें एक खालिस्तानी और एक हिन्दुस्तानी में भला अन्तर नजर आ ही कैसे सकता है? ग़ज़लकारों को यह समझाना भी निस्संदेह कठिन कार्य है कि- एक कवि जब आलोचना के क्षेत्र में उतरता है तो उसे उसकी रचनात्मक विशेषता के आधार पर आलोचक पुकारा जाना बेहद जरूरी है।
विद्यार्थी विद्या ग्रहण करने के उपरान्त जब नौकरी या व्यवसाय के क्षेत्र में उतरता है तो उसे विद्यार्थी नहीं, कर्मचारी या व्यावसायी कहा जाता है।
श्री शिव ओम अम्बर के अनुसार-ग़ज़ल अब किसी शोख हथेली पर अंकित मेंहदी की दंतकथा से हटकर युवा आक्रोश की मुट्ठी में थमी मशाल है।
 क्या मेंहदी रची हथेली और युवा आक्रोश की मुट्ठी में थमी मशाल में कोई अन्तर नहीं होता? यदि ग़ज़ल मादक भंगिमाओं से रिझाने वाले, मदिरापान कराने वाले, रतिक्रियाओं में डूब जाने वाले अपने चरित्र को त्यागकर एक समाज सेविका की भूमिका निभा रही है तो इसे नर्तकी या वैश्या की जगह समाज सेविका कहने में इन रचनाकारों को शर्म क्यूं आती है?
कहीं तेवरी का विरोध करने वाले रचनाकार प्रेमी को बाहों में जकड़ने के जोश को आक्रोश तो नहीं समझ बैठे है?
 समकालीन हिंदी ग़ज़ल का यदि कोई प्रारूप है तो बताया क्यों नहीं जा रहा है?
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630