रमेशराज
तेवरी : शोषणविहीन समाज का संकल्प
+रमेशराज
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इतिहास गवाह है कविता का जब भी शोषक, जनविरोधी शक्तियों के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल हुआ
है, भाषा में बारूद भरी गयी है तो उससे आदमखोरों के भीतर गुर्राता
हुआ भेडि़यापन शब्दों की गोलियों से छलनी होकर सरे-आम दम तोड़ने
लगा है।
इतिहास गवाह है, कविता जब-जब भी
सामाजिक यथार्थ से कतराकर चली है, ईश्वर और मोक्ष के छद्मता से
भरे रास्तों पर अध्यात्म के जंगल में भटकी है या एक अजीब स्वप्नलोक में विचरी है,
तब-तब आम जनता की गर्दन पर पूँजीवादी ढाँचे के
शोषण की तलवारें भरभरा कर टूटी हैं।
इतिहास गवाह है, कथित भारतीय स्वतन्त्रता के विगत वर्षों
में पूँजीवादी शोषक व्यवस्था ने जिस तरह अपनी जड़ें जमायी हैं, गलत और भ्रष्ट मूल्यों ने आदमी के चरित्र में जिस तरह घुसपैंठ की है,
धर्म, सुधार, योजना-परियोजना के नाम पर जिस तरह साजिशियों ने एक धोखे-भरा
खेल खेला है, सत्ताधारी बहेलियों ने आपातकाल के दौरान जिस तरह
अनुशासन, देशहित के कार्यक्रम के सब्जबाग दिखाकर जनतन्त्र की
हत्या की है, उस कटुयार्थ को कविता ने देखा ही नहीं, भोगा ही नहीं, अपने सीने पर तलवार की तरह झेला भी है।
यही कारण है कि स्वतन्त्रता के बाद कविता जझारू, संघर्षशील,
आक्रामक होती चली गयी। उसमें एक ऐसी वैचारिक उग्रता भर गयी है,
जिसमें इस कुव्यवस्था के खिलाफ कुछ कर गुजरने की ललक है।
तेवरी समकालीन कविता का एक ऐसा ही काव्य-रूप है,
जिसके एक-एक तेवर में शोषितवर्ग की पूँजीवादी,
सत्ताधारी वर्ग के खिलाफ सक्रिय मोर्चेबन्दी है।
तेवरी ने समकालीन व्यवस्था से संत्रस्त पात्रों की क्षोभातुर भावनाओं को रोमांसवादी
तरीकों से बहलाकर शांत करने की कोशिश नहीं की, बल्कि उन्हें आक्रोश,
एक आंदोलन, एक संघर्ष की मुद्रा में बदलने का प्रयास
किया है।
तेवरी भयंकर हताशा के घटाटोप अंधेरे के बीच मजदूर के हाथ में लगी हुई लालटेन
की तरह हमारे बीच आयी है, जिससे सही मार्ग की ओर कदम बढ़ सकें।
तेवरी मखमली गद्दों, आलीशान कोठियों से ऊब रही कविता
को एक ऐसी बस्ती में ले आयी है, जहाँ कड़वे अनुभवों के इर्दगिर्द
जीने की विवशता है। चेहरे की हँसी के पीछे दुःखद अर्थों की भरमार है।
तेवरी भूख, गरीबी, दमन,
अन्याय के प्रति चुप्पी साधे
हुए लोगों को उनके अधिकारों की खातिर लड़ाई लड़े जाने के लिए पुकारती ही नहीं,
उन्हें एक ऐसे सोच के धरातल पर भी एकत्रित करती है, जहाँ आदमखोरों के चेहरे से आदर्शवादिता, जनसेवा,
मानवता के घिनौने नकाब प्याज के छिलकों की तरह उचलने लगते हैं।
तेवरी पूँजीवादी व्यवस्था के पिंजरे में कैद शोषित वर्ग के सपनों को मुक्त
कराने के लिये शब्दों का आरी की तरह इस्तेमाल करती है ताकि आम आदमी शोषण-मुक्त आकाश के तले चैन की साँस ले सके।
तेवरी अत्याचारियों को घेरे हुए भीड़ के बीच गुस्से से तनी हुई एक ऐसी मुट्ठी
है जिसके भीतर यातना व अन्यायमुक्त समाज के सुखद संकेतों की शुरुआत है।
तेवरी खोखली और बुर्जुआ मानसिकता की किलेबन्दी तोड़ने के लिये जूझती है,
थकती है, टूटती है, लेकिन
लगातार प्रहार करती है।
तेवरी धर्म की अफीम में धुत पड़े हुए समाज की लुंज आत्मा में साम्राज्यवादी
शक्तियों द्वारा थोपे गये अन्ध विश्वासों को जड़ से उखाड़ कर फैंक देने के लिये हल
की तरह भीतर तक धंसती है और यथार्थ की जमीन को उर्वरा बनाकर उसमें सही मूल्यों,
संस्कारों, संस्कृति के बीज बोती है।
तेवरी गालिब, मजाज, दाग,
मीर आदि की ग़ज़लों की तरह अपने आस-पास के परिवेश
से अनभिज्ञ कलात्मक सुरुचियों की पहचान नहीं बनाती। वह तो कबीर की कविता की तरह आम
आदमी के घर-घर यात्रा करती है। उसके दुःख-दर्द में सहभोगा बनती है। हर स्तर पर पराजय का मुँह देखने वाली जनता को संघर्ष
लड़ाई और क्रान्ति के लिये प्रेरित करती है। तेवरी संग्रह ‘‘कबीर
जि़दा है’ की तेवरियां कुछ इसी प्रकार की हैं।
[ ‘कबीर जि़ंदा है’
तेवरी-संग्रह की भूमिका ]
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001
मो.-9634551630
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