Saturday, July 16, 2016

तेवरीः तेवरी है, ग़ज़ल नहीं +रमेशराज




तेवरीः तेवरी है, ग़ज़ल नहीं

+रमेशराज
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    तेवरी, कोरे रूप सौन्दर्य, व्यक्तिगत प्रेमालाप, थोथी कल्पनाशीलता, सामाजिक पलायनवादी दृष्टि से विमुख एक निश्चित अंत्यानुप्रासिक व्यवस्था से युक्त वह विधा है जिसमें मानवतावादी चिन्तन की सत्योन्मुखी संवेदनशीलता, शोषित के प्रति करुणा और शोषक के प्रति आक्रोश, असंतोष, विरोध और विद्रोह के रसात्मक बोध से सिक्त दिखलायी देती है। तेवरी की प्रतिबद्धता हमारे उन रागात्मक मूल्यों के साथ है, जो बर्जुआ और साम्राज्यवादी वर्ग द्वारा लगातार खण्डित किये जा रहे हैं। जबकि ग़ज़ल की स्थापना दैहिक भोग और प्रशस्ति को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए की गयी। ग़ज़ल ने अपना विधागत स्वरूप अपने एक विशेष चरित्र-प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीतके संदर्भ में ग्रहण किया। किसी छन्द या बहर विशेष के आधार पर ग़ज़ल का स्वरूप न तो कभी पहले तय किया गया और न बाद में। ग़ज़ल को किसी एक निश्चित छन्द में ही कहे जाने की गुंजाइश मिली। अनेक बहरों में कही जाने वाली ग़ज़ल में शेरों, रदीफ-काफियों जैसी तकनीकी व्यवस्था का प्रचलन हिन्दी में आदिकाल से मौजूद है। रीतिकाल तो इस तकनीकी व्यवस्था से भरा हुआ पड़ा है। यह सुनिश्चित है कि ग़ज़ल को विधागत मान्यता उसकी एक विशेष भाव भंगिमा [ जो कि शृंगारपरक रही है ] के आधार पर ही मिली। अतः एक तरफ जहां तेवरी की विधागत पहचान उसके सत्योन्मुखी चिन्तन के आधार पर है तो ग़ज़ल का विधागत स्वरूप उसकी व्यक्तिवादी विशेषताओं में अंतर्निहित है।
    तेवरी और ग़ज़ल के इसी अंतर को स्पष्ट करने के लिए श्री ज्ञानेंद्र साज ने जर्जर कश्तीके कई अंकों में गजलें’? शीर्षक से एक लम्बी बहस का आयोजन किया। बहस के अन्तर्गत उठे विभिन्न प्रश्नों और विवादों के उत्तर श्री ज्ञानेन्द्र साज ने बड़ी ही सूझ-बूझ एवं तर्कप्रधान विवेचन के साथ प्रस्तुत किये। श्री आनन्द गोरे ने तेवरी को जनवादी ग़ज़ल की संज्ञा देते हुए इसे ग़ज़ल को अपदस्त करने का एक षड़यंत्र माना और सवाल किया कि-‘‘जब आपको प्रेमी-प्रेमिका के किस्सों वाली ग़ज़लों से इतना ही परहेज है तो रईसुद्दीन रईस की ग़ज़ल क्यों प्रकाशित की?
    श्री आनन्द गोरे ने जिन तथ्यों की ओर संकेत किया, उनसे निम्न बातें उभर कर सामने आयीं- 1. हिन्दी में तेवरी का प्रादुर्भाव, ग़ज़ल को अपदस्त करने के लिए हुआ है। 2. हिन्दी में जनसापेक्ष चिन्तन से युक्त उक्त प्रकार की रचनाधर्मिता यदि ग़ज़ल नहीं तो जनवादी ग़ज़ल अवश्य है, लेकिन तवेरी कदापि नहीं। 3. यदि तेवरी आन्दोलन की पक्षधरता करने वाले सम्पादक को तेवरी से इतना ही व्यामोह है तो वह ग़ज़लें क्यों  प्रकाशित करते हैं।
    पहले प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री साज ने लिखा कि-तेवरीकार ग़ज़ल को अपदस्त करने में कतई विश्वास नहीं रखते, बल्कि उनका प्रयास तो यह है कि जो रचनाएं ग़ज़ल की सम्पूर्ण विशेषताएं अपने में समाहित किये हुए हैं, केवल उन्हें ही ग़ज़लें माना जाये। जो रचनाएं शिल्प एवं कथ्य की दृष्टि से ग़ज़ल से एकदम भिन्न हैं, उन्हें किसी भी स्थिति में ग़ज़लें नहीं कहा जा सकता।उन्होंने दूससे व तीसरे प्रश्न के उत्तर में जनवादी ग़ज़ल की सार्थकता को नकारते हुए कहा-कथित ग़ज़ल में किये गये, या आये विभिन्न कथ्य एवं शिल्प सम्बन्धी परिवर्तनों के आधार पर यदि ग़ज़ल के साथ हिन्दी, जनवादी, उर्दू, अवामी या सियासी जैसे नये-नये विशेषणों को जोड़ा जाता है तो यह स्थिति ठीक उसी प्रकार रहेगी जैसे कोई रामचन्द्र को हिन्दू रामचन्द्र, रईसुद्दीन को मुसलमान रईसुद्दीन कहकर पुकारे और एक नयी साम्प्रदायिक स्थिति पैदा करने की कोशिश करे। जबकि राम या  रईसुद्दीन में ही स्पष्ट पहचान दृष्टिगोचर होती है। तब ग़ज़ल की ग़ज़ल और तेवरी की तेवरी के रूप में पहचान स्थापित करना किसी अज्ञानता का नहीं, बल्कि विवेकशीलता का द्योतक है। इसी कारण हम ग़ज़ल को ग़ज़ल के रूप में और तेवरी को तेवरी के रूप में प्रकाशित कर एक उचित और सारगर्भित मार्ग तय कर रहे हैं।‘
    श्री तारिक असलम तस्नीम अपना पांडित्य प्रदर्शन करते हुए, मौलवी के अन्दाज में तेवरीकारों को नासमझ और शरारती बच्चे मानते हुए उन्हें अक्ल प्रदान करने की दुआ मागते हुए, बुजुर्गों जैसी सलाह देते हुए ग़ज़ल का अर्थ समझाते हैं-गजल सही मायने में हुस्नो-इश्क, जवानी, नैतिकता और आध्यात्मिकता की प्रस्तुति है। मगर जमाने के बदलाव के साथ हम अपने आचार-विचार, रस्मोरिवाज, परम्परा, आदर्श, मूल्य व रहन-सहन के स्तर व आवश्यकताओं आदि को समयानुकूल स्वीकार कर चुके हैं, तब यथार्थोन्मुखी चेतना को स्वीकारने में ग़ज़ल क्यों पीछे रहे।’’
    तस्नीम के तर्क पर जर्जर कश्ती के सम्पादक ने चुटकी लेते हुए एक बेहद महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा-भाईजान! यदि किसी वैश्यालय को खत्म करके वहां एक विद्यालय बनवा दिया जाए तो क्या आप उसे फिर भी वैश्यालय ही कहेंगे?’
         ग़ज़ल शब्द के व्यामोह में जकड़े ग़ज़ल के आचार्य श्री जमुनाप्रसाद राही यह तो मानते हैं कि समसामयिक विसंगतियों, विकृतियों के प्रति विरोध स्वर को मुखर करने वाली कथित ग़ज़लें ग़ज़ल की शास्त्रीय परम्परा से मेल नहीं खातीं। ग़ज़ल का पारम्परिक स्वरूप एक ऐसी प्रेमिका या औरत का रहा है, जो सामंतों , अय्याशों के महलों को शोभा थी।लेकिन वह यह भी कहते हैं-आज वह औरत या प्रेमिका महलों से निकलकर कारखानों, दफ्तरों, सीमेंटेड सड़कों पर मर्द के साथ शाना-ब-शाना कार्यरत है। जब इतनी तब्दीली ग़ज़ल की शैली और शायर के सोच में आ गयी है तो यह तब्दीली हमें गवारा करनी चाहिए।’’
    श्री ज्ञानेन्द्र साज़ उक्त प्रश्नों का उत्तर देते हुए लिखते हैं कि-‘‘जब ग़ज़ल ने अपनी अय्याशों को रिझाने वाली भाव-भंगिमाओं का परित्याग कर एक आदर्श नारी की भूमिका निभाना प्रारम्भ कर दिया है, तब वह ग़ज़ल संज्ञा के रूप में एक रक़्क़ासा ही क्यों पुकारी जा रही है, उसे एक मजदूरिन या आदर्श पत्नी के रूप में तेवरीके नाम से विभूषित किया जाना अनौचित्य पूर्ण कैसे और क्यों है?
    श्री साज, ने आगे सवाल किया कि क्या वे चारित्रिक तब्दीलियों के आधार पर भजन, प्रशस्ति, कलमा, मर्सिया आदि का भी कथ्य बदल जाने पर उन्हें भजन, मर्सिया, कलमा आदि विशेषणों से ही पुकारना औचित्यपूर्ण मानेंगे। यदि ऐसा है तो क्या मातमपुर्सी को कलमा कहा जा सकता है या विद्रोह की कविता को भजन माना जा सकता है? जैसा कि राही साहब मानते हैं कि गजल के शेरों में प्रेमपूर्ण वार्तालाप एवं सुरासुन्दरी के संगम के अतिरिक्त अन्य विषयों पर भी लिखा गया है तो यदि इसी तकनीकी व्यवस्था में, बच्चे के जन्मदिन, दूल्हा-दुल्हन के विवाह का वर्णन, अलौकिक शक्ति जैसे ईश्वर आदि के प्रति विनती, किसी की मौत पर शोक संवेदना अथवा किसी राजा या मन्त्री की तारीफ का जिक्र किया जाए, तब क्या इस कथ्य से युक्त उक्त प्रकार की शैली को ग़ज़ल ही मानने का साहस कथित ग़ज़ल के हिमायती दिखा पायेंगे?
    श्री शेलेन्द्र स्वरूप सक्सेना का मानना है कि-‘‘गजल एक छंद है और उसके शाब्दिक अर्थ ‘प्रेमिका से प्रेमपूर्ण वार्तालाप’ पर जाना ठीक न होगा’, हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि ग़ज़ल यदि एक छन्द है तो कौन सा? यदि ग़ज़ल एक छन्द है तो इसका शास्त्रीय पक्ष निर्धारित करने वालों से लेकर शब्दकोषों तक इसका जिक्र क्यों नहीं किया गया।
ग़ज़ल फोबिया के शिकार इन लोगों की स्थिति यह है कि इन्हें भाव, कथोपकथन, रंग-रूप, भाषा-शैली के हिसाब से तेवरी और ग़ज़ल में कोई बुनियादी अन्तर नजर नहीं आता। जबकि अशोक ठाकुर मानते हैं कि तेवरी की जो बुनियादी आवश्यकता है-धरातल है, वह ग़ज़ल से भिन्न है। गरीबी, पीड़ा, कुंठा, आक्रोश, टूटन, घुटन, कुछ न कर पाने की छटपटाहट तेवरी व्यक्त करती है। तेवरी के उक्त तेवरों [ भाव भंगिमाओं ] को पहचानना और ग़ज़ल की नाजुकबयानी को समझना नीर क्षीर विवेक की स्थिति है। अतः विद्वानों को इस बहस की सार्थकता को समझना चाहिए। लेकिन आग्रही, दुराग्रही, अल्पज्ञानी साहित्यकारों की स्थिति यह है कि उन्हें नीर और क्षीर में अन्तर ही दृष्टिगोचर नहीं होता। इस अन्तर को स्पष्ट करने के लिए जब श्री ज्ञानेन्द्र साज ने जर्जर कश्ती के अंकों में बहस जारी की तो बजाय तर्क देने के तारिक असलम जैसे कथित ग़ज़लगो कुतर्क और गालीगलौज की भाषा पर उतर आये और ग़ज़ल के वैश्यायी रूप से पक्षधरता करते हुए कह उठे- ‘‘अब रही बात वैश्या और वैश्यालयों की तो मैं  [ शिक्षित मूर्खों को ] सआदत हसन मंटो के शब्दों में यह बता देना चाहता हूं कि समाज मैं इनका अस्तित्व भी जरूरी है। आप शहर में चमचमाती खूबसूरत गाडि़यां देखते हैं। ये गाडि़यां कूड़ा-करकट उठाने के काम नहीं आ सकतीं। गन्दगी उठाने के लिए और गाडि़यां मौजूद हैं, जिन्हें आप कम देखते हैं। अगर देखते हैं तो नाक पर रूमाल रख लेते है। जबकि इन औरतों का भी वजूद है, जो आपकी गन्दगी समेटती हैं। अगर ये औरतें न होतीं तो हमारे सब गली-कूचे मर्दों की गन्दी हरकतों से भरे होते। ग़ज़ल के संदर्भ में यह समझने की बातें हैं ।’’
    ग़ज़ल को वैश्या का जामा पहनाकर, उसके पुरुष द्वारा शोषित मन की व्यथा को न समझ पाने वाले अय्याश वर्ग की उक्त प्रकार की दलीलें, एक बात तो निश्चित रूप से उजागर करती है वह यह कि इनके मन में कोई न कोई ऐसी विकृत या हीनग्रन्थि जरुर है, जो हर स्तर पर प्रगतिशीलता और परिवर्तन की विरोधी है। सार्थक चिन्तनशीलता के स्थान पर एक अन्धी दृष्टि इन्हें वैश्यालय और विद्यालय में मूलभूत पहचान करा पाने में असमर्थ रहती है। अतः श्री ज्ञानेन्द्र साज द्वारा उठायी गई बहस के अन्तर्गत यह कहें कि भाई समस्त विश्व के आंकड़े इस बात की स्पष्ट गवाही देते हैं कि वैश्यावृत्ति करने वाला पुरुष वर्ग वैश्यावृत्ति के उपरांत भी अपनी गन्दी हरकतों से बाज नहीं आता। उसमें एक ऐसी विकृत मानसिकता पनप जाती है कि पहले वह पड़ोस को अपना शिकार बनाता है और बाद में मदिरापान कर अपनी ही मां, बहिन, बेटियों को नहीं छोड़ता। इस चारित्रिक उत्थान बनाम चारित्रिक पतन में वैश्यावृत्ति कितनी जरूरी है? यह सोचने का विषय है। यदि कूड़ा-कचरा ढोने वाली गाडि़यां ऐसे कुतर्क गढ़ने वालों के घर के सामने या किसी स्वस्थ बस्ती में उलट दी जायें तो कैसा लगेगा? वैश्याओं के अस्तित्व की सार्थकता के पीछे ऐसे महानुभावों के मन में कोई न कोई हीनग्रन्थि अवश्य है। वर्ना क्या वजह है कि एक प्रख्यात शायर की मां की वैश्या थी लेकिन उसने इन्हें समाज के जिस्म पर बदबूदार कोढ़ ही बताया।
    जर्जर कश्तीमें उठायी गई बहस के उक्त विवेचन से तेवरी और गजल के बीच निम्न प्रकार से अन्तर स्पष्ट होता है। जिसे हम अरुण लहरी के शबदों में इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं-
1- तेवरी, ग़ज़ल की तरह नारी को साकी के रूप में प्रस्तुत करना नहीं चाहती, वह तो स्वार्थी, शोषक समाज द्वारा छली गई नारी की पीड़ा को अपनी अभिव्यक्ति का विषय बनाती है।
 2- तेवरी, गजल की तरह शमा और परवाने की दास्तान कहने में विश्वास नहीं रखती बल्कि गांव या शहर के जर्जर रामू काका के चेहरे की झुर्रियों का इतिहास बनाती है।
 3- तेवरी किसी शराबी, अय्याश या नर्तकी के अंग संचालन, परिचालन, चेष्टाओं, भाव भंगिमाओं पर ध्यान केन्द्रित कर अपना सारा सोच उसकी विकृतियों पर लगाती है।
शिल्प के संदर्भ में
1- तेवरी मात्रिाक और वर्णिक छन्दों में लिखी जाने वाली रचना है, जबकि ग़ज़ल बहर में कही जाती है।
2- तेवरी का कथ्य गीत के अत्यधिक निकट है, उसमें कोई घटना या कथा भी स्थान पा सकती है, जबकि ग़ज़ल की हर दो पंक्तियों  [शेर] का कथ्य पूर्ण व अन्य शेरों से अशृंखलाबद्ध होता है।
3- तेवरी की अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था स्वर और व्यंजनों के संयुक्त प्रयोग से उत्पन्न हुई है, जबकि ग़ज़ल की तुकान्त व्यव्स्था में काफिये का आधार स्वर ही लिया गया था।
4- तेवरी में मतला और मक्ता शेरों जैसी कोई प्रावधान नहीं, और न ग़ज़ल के शेरों की तरह उसके तेवरों की संख्या निश्चित है।
5- तेवरी का शास्त्रीय पक्ष भारतीय काव्यशास्त्र के सैद्धांतिक पक्ष पर ही ज्यादा खरा उतरता है, जबकि ग़ज़ल में आयातित संस्कार की झलक आज भी विद्यमान है।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630       

ग़ज़ल नहीं है तेवरी +रमेशराज




ग़ज़ल नहीं है तेवरी

+रमेशराज
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    स्थायी भाव आक्रोश’ से युक्त विरोध-रस’ का उद्बोधन कराने वाली सुप्रसिद्ध तेवरीकार ज्ञानेन्द्रसाज की कृति वक्त के तेवर’ चुनी हुई 64 तेवरियों का ऐसा संग्रह है जिसका रसास्वादन पाठकों में स्थायी भाव आक्रोश’ और असंतोष’ जागृत कर विरोध और विद्रोह’ के रसात्मक बोध में ले जाता है। विरोध और विद्रोह की यह रसात्मकता आलंबन विभाव’ के रूप में वर्तमान व्यवस्था के उपस्थित होने तथा उद्दीपन विभाव’ के रूप में इसी व्यवस्था के विद्रूप अर्थात् घिनौने आचरण के कारण रस-रूप में जन्म लेती है।
    वक्त के तेवर’ तेवरी-संकलन की तेवरियां ऐसे रस-मर्मज्ञों के बीच अवश्य ही असफल सिद्ध होंगीजो अधूरी और अवैज्ञानिक रस-परम्परा से चिपके हुए हैं। रस के ऐसे पंडितों को तेवरीकार ज्ञानेन्द्र साज़ का यह प्रयास बालू से तेल निकालने के समान भले ही लगे लेकिन जो सहृदय विद्वान रसानुभूति को विचार की सत्ता से जोड़कर सोचने-समझने की सामर्थ्य  रखते हैंउन्हें यह तेवरियां हर प्रकार आश्वस्त और रस-सिक्त करेंगी।
    तेवरीकार आक्रोशित इसलिए है-
गर्दिशों में सवेरे हैं क्या कीजिए
हर जगह गम के डेरे हैं क्या कीजिए?
आप दामन बचायेंगे किस-किस जगह
हर गली में लुटेरे हैं क्या कीजिए?
    तेवरीकार अपने भीतर के आक्रोशविरोधअसंतोष और विद्रोह को इस प्रकार प्रगट करता है-
अपनी तो समझ में ये बात नहीं आयी
ये कौम के रहबर हैं या देश के कसाई।
अथवा
बदले हुए हैं वक्त के तेवर
घूमता आक्रोश सड़कों पर।
इनको न होगा किसी का डर
रख देंगे तोड़कर ये शीशाघर।
    तेवरीकार ज्ञानेन्द्र साज ने वक़्त के तेवर’ तेवरी-संग्रह की भूमिका एक सार्थक सवाल के साथ आरम्भ की है-‘‘मैंने सदैव ग़ज़ल और तेवरी में अन्तर महसूस किया है। यह अलग बात है कि ग़ज़ल के तथाकथित दिग्गजों के हलक में यह बात नहीं उतरती। शायद इसीलिये यह मुद्दा विवादास्पद बना हुआ है। ये लोग सहमति या असहमति के किसी भी रूप में अपना मुंह नहीं खोलना चाहते।’’
    साज़जी का उपरोक्त कथन एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जो ग़ज़ल और तेवरी के उस विवाद की ओर संकेत करता हैजिसको सुलझाये बिना कथित हिन्दीग़ज़ल के पक्षधर तेवरी को खारिज कर या तो उसे हिन्दीग़ज़ल घोषित करते हैं या हिन्दीग़ज़ल का एक अशास्त्रीय ढांचा बताते हैं। तेवरी के वैज्ञानिक स्वरूप पर कथित हिन्दीग़ज़ल के पंडित इसलिये चर्चा करना नहीं चाहते हैं क्योंकि इससे उनकी हिन्दी ग़ज़ल का सारा का सारा स्वरूप विखण्डित हो जायेगा। इसी कारण ऐसे लोग बिना किसी बहस के हिन्दी ग़ज़ल... हिन्दी ग़ज़ल’ का हो-हल्ला मचाये हुए हैं।
    ग़ज़ल की स्थापना प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत’ के संदर्भ में की गयी। इसकी सामान्यतः दो विशेषताओं रदीफ तथा काफिया को लेकर हिन्दी में हिन्दीग़ज़ल का एक निष्प्राण स्वरूप खड़ा किया गयाबिना यह सोचे-समझे कि जब किसी वस्तु का चरित्र बदल जाता है तो वह वस्तु अपने नाम की सार्थकता को खो देती है। यही नहीं उसके शिल्प में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता है।
    हिन्दी ग़ज़ल... हिन्दी ग़ज़ल... का होहल्ला मचाने वाले और इसे प्रलयंकारी मशाल बताने वाले हिन्दीग़ज़लकारों के मन में पता नहीं कब यह बात बैठैगी कि कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई और रानी लक्ष्मीबाई में जमीन-आसमान का अन्तर है। यदि कोई चम्पाबाई अपनी भोगविलास की वृत्ति को त्यागकर रानी लक्ष्मीबाई की तरह इस घिनौनी व्यवस्था से टकराने के लिये हाथों में तलवार लेकर खड़ी है तो उसे रानी लक्ष्मीबाई कहकर पुकारने में इन्हें शर्म क्यों महसूस होती है।
    ग़ज़ल और तेवरी में भेद न करने वाले ऐसे हिन्दीग़ज़ल के पक्षधरों को यह भी सोचना चाहिए-
    जल उसी स्तर तक जल की सार्थकता ग्रहण किये रहता है जबकि वह हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का यौगिक है। यदि कोई व्यक्ति उसमें साइनाइड मिला दे तो ज़हर बन जाता है। यही जल एल्कोहल के साथ खराब पुकारा जाता है।
    मोमबत्तीदीपक और बल्ब अंधकार को प्रकाशवान बनाते हैं लेकिन हम इनका एक ही तरीके से आकलन नहीं कर सकते।     
फांसी देकर हत्या करने वाले को जल्लादघात लगाकर हत्या करने वाले को शिकारी या आखेटकगोश्त का व्यापार करने हेतु हत्या करने वाले को कसाई कहा जाता है। हत्या करने वालों का यह वर्गीकरण उनके गुणधर्मों पर आधारित है।
    वायुयान के चालक को पाॅयलट’ और बस के चालक को ड्राइवर’ कहना उनकी चारित्रिक पहचान कायम करना है।
लेकिन जिन लोगों को इस चारित्रिक-महत्ता या अर्थवत्ता की पहचान नहीं है या इस चारित्रिक बहस से दूर भागते हैंउन्हें तेवरी और ग़ज़ल के चरित्र में कोई फर्क नज़र आयेगा या कभी इस बहस में शरीक होकर इसे प्रासंगिक बनाने का प्रयास करेंगेऐसी उम्मीद रखना इन लोगों के समक्ष बेमानी ही रहेगी। इसीलिए ज्ञानेन्द्र साज का वक्त के तेवर’ संकलन में उठाया गया बहस का यह मुद्दा कि मैंने ग़ज़ल और तेवरी में सदैव अंतर महसूस किया है’, बहस के केंद्र-बिन्दु में ऐसे कथित ग़ज़ल के पंडितों के बीच कोई खलबली नहीं मचायेगा जो हिन्दीग़ज़ल की स्थापना में बिना किसी तर्क का सहारा लिये जुटे हैं।
    हिन्दी ग़ज़ल को प्रलयंकारी मशालआम आदमी के दुखदर्दों की संजीवन बूटी बताने वाले कथित यथार्थ-आग्रही हिन्दी ग़ज़लकारों को सच बात तो यह है कि इन्हें न तो ग़ज़ल लिखने की तमीज है और न तेवरी की।
ऐसे विद्वान ग़ज़ल को प्रलयंकारी मशाल बताने के बाबजूद उसमें जनधर्मी चिन्तन को प्रेमिका से आलिंगनबद्ध होते हुए भर रहे हैं | इनके ग़ज़ल-कर्म में प्रेमिका को बांहों में भरने का जोश और कुब्यव्स्था से उत्पन्न आक्रोश का अर्थ एक ही मालूम पड़ता है |
    तेवरी की स्थापना जिन मूल्यों को लेकर की गयीवह मूल्य ग़ज़ल के चरित्र को न पहले ग्रहण करते थे और न अब करते हैं। तेवरी हमारे रागात्मक सम्बन्धों की सत्योन्मुखी प्रस्तुति है। तेवरी आक्रोशअसंतोषविरोध और विद्रोह का एक ऐसा स्वर है जो हर प्रकार की कुव्यवस्था के प्रति मुखरित होता है। जबकि ग़ज़ल या हिन्दी ग़ज़ल आज भी शृंगाररतिकाम और अभिसार के साथ-साथ व्यवस्था-विरोध के घालमेल का सार है। यह घालमेल निश्चित रूप से अपरिपक्वताअज्ञानता को द्योतक है। तेवरी एक स्पष्ट सुविचारित यात्रा है जबकि हिन्दी ग़ज़ल या कथित ग़ज़ल एक अंधी दौड़ है।
    वक्त के तेवर’ तेवरी-संकलन की तेवरियां पढ़कर यह बात अन्ततः या अन्त तक स्पष्ट होती है कि तेवरी ग़ज़ल की तरह किया गया ऐसा कोई कुकर्म नहीं जो प्रेमिका को बाहों में भरकर आलिंगनबद्ध होते हुए कुव्यवस्था को गाली देने का बोध कराये। तेवरी प्रेमिका को बांहों में भरने के जोश और कुव्यवस्था से उत्पन्न होने वाले आक्रोश में अन्तर करना भलीभांति जानती है।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630       

Tuesday, April 12, 2016

तेवरी की सामाजिक पृष्ठभूमि +रमेशराज




तेवरी की सामाजिक पृष्ठभूमि  

+रमेशराज
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   यदि सामाजिक-परिवर्तन या घटनाक्रम को यथार्थवादी दृष्टिकोणों से जोड़कर मूल्यांकित किया जाये तो इतिहास के उस नेपथ्य की भी जानकारी होने लगती है, जहाँ जन-सेवी या समाजवादी व्यक्तित्व बदसूरत ही नहीं लगते, बल्कि एक ऐसे कुकृत्य में लिप्त पाये जाते हैं, जिसे जन-द्रोहिता कहा जाता है। इस संदर्भ में यदि हम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और उसके बाद के इतिहास के नेपथ्य का अवलोकन करें तो पायेंगे कि अराजकता, शोषण और अन्याय के विरुद्ध  आवाज उठाने वाले ही अनेक व्यक्तियों ने नेपथ्य से आम आदमी की पीठ में एक ऐसा छुरा घोंपा, जो दिखायी तो नहीं दिया किन्तु उसकी मार इतनी तीखी और विशाल थी कि उससे अप्रभावित हुए बिना कोई भी नहीं रह सका। शान्ति और अहिंसा के पुजारियों ने समूची मानवता की हिंसा की।
   कमाल तो यह है कि नेपथ्य के षड्यंत्रकारी जब मंच पर हावी हुए तो उन्होंने मंच से सही और ईमानदार नेतृत्वकर्ताओं को धक्का ही नहीं दिया बल्कि उन्हें एक ऐसी स्थिति में लाकर पटक दिया जहाँ से उनकी आवाज एक पागलपन समझी जाने लगी। ऐसी त्रासद स्थितियाँ हमारे उन क्रान्तिकारियों ने भोगीं जो सच्चे अर्थों में जनता के हितैषी थे। ऐसे लोगों को उग्रवादी करार देने वाले वही लोग थे जो अंग्रेजों और भारतीय पूँजीपतियों के बीच दलालों की भूमिका निभा रहे थे। उसी दलाली के फलस्वरूप भारत में स्वतन्त्रता आम वर्ग को न मिलकर एक ऐसे वर्ग को मिली जिसका उद्देश्य शान्ति और अहिंसा के थोथे नारों के बल पर सत्ता हथियाना ही नहीं बल्कि जन सामान्य के मुँह का दाना और तन का कपड़ा छीनकर चन्द लोगों की सुख-सुविधा  का साधन बनाना था। देश को एक ऐसी अराजक और भ्रष्ट अवस्था में ले जाना था, जिसमें खास वर्ग की तरह सामान्य वर्ग का भी इतना चारित्रिक पतन हो जाये कि कोई किसी पर अँगुली न उठा सके। चोर-चोर मौसेरे भाईकी परम्परा स्वतन्त्रता के बाद जन-सामान्य में इतनी फली-फूली कि शोषक और शोषित में अन्तर करना उतना ही मुश्किल हो गया है जितना कि इतिहास के नेपथ्य को समझना।
   भारतीय स्वतन्त्रता के बाद जिन नेताओं ने भारत का नेतृत्व सम्हाला, उन्होंने लोकतन्त्र का इस्तेमाल लोकहित में न करके, सत्ता और नौकरशाही प्रवृत्तियों के नरभझी पौधों  को पालने-पोसने में किया। परिणामस्वरूप समूची तंत्र-व्यवस्था शोषक, आदमखोर, अत्याचारी होती चली गयी।
   शासक वर्ग ने सत्ता-स्थायित्व, अहंतुष्टि और कोरी वाहवाही लूटने के लिये ऐसे हथकन्डे अपनाने शुरू किये जो आम जनता को असहाय, पीडि़त और दरिद्र बनाने के साथ-साथ चरित्रहीनता की ओर धकेलते चले गये। सुविधा  और विलासता की ललक के शिकार लोग अपनी स्वार्थ-पूति के लिये देश के साथ साम्प्रदायिकता, अलगाव, तस्करी, डकैती, बलात्कार, संगठित विद्रोह और भ्रष्टता की बेहूदी भूमिका निभाने लगे। उनकी इन करतूतों पर कोई उँगली न उठा सके, इसके लिये उन्होंने गांधीवाद का सहारा लिया। भारत के इतिहास में जिस तरह के व्यभिचार की जडे़ं धर्म  के नाम पर पनपीं, ठीक उसी तरह का व्यभिचार गांधी के नाम पर विकसित हुआ।
   शाषक वर्ग ने शिक्षा की उन्नति से धार्मिक अन्ध विश्वासों के पतन को देखते हुए जनता की मानसिकता को पुनः लुंज और गुमराह करने के लिये अपरोक्ष रूप से हिंसा और सेक्स प्रधान फिल्मों तथा घटिया उपन्यासों और अपराध् कथाओं को बढ़ावा इसलिये दिया ताकि आदमी सत्ता की करतूतों पर केन्द्रित होकर व्यवस्था परिवर्तन की माँग की रट लगाने के बजाय समाज के उन अंगों पर ही प्रहार करे जो उसके अपने हैं, क्योंकि शासक वर्ग को आजादी के बाद सबसे बड़ा खतरा जन-समर्थक पत्रकारिता और साहित्य से ही दिखाई दिया, जो गलत राजनीति की ओर संकेत-भर ही नहीं, बल्कि समाजवादी मान्यताओं को स्थापित करने के लिये एक संकल्प भी था, या है।
   जनसमर्थक साहित्य के समानान्तर अश्लील साहित्य को स्थापित करने की साजिश के परिणामस्वरूप सामाजिक मूल्य और लगाव में कमी ही नहीं आयी बल्कि सेक्स, हिंसा, बलात्कार, व्यभिचार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी होने लगी। समाज सोचके धरातल पर अपने स्वार्थों की अंधी दौड़ में एक दूसरे को टंगी मारकर आगे बढ़ने लगा। दूसरी तरफ सत्ता का अपराधीकरण इसलिये किया गया ताकि गुण्डा-संस्कृति के बल पर आतंक और भय फैलाकर सत्ता को सुरक्षित रखा जा सके। कुल मिलाकर आज हमारा देश इस स्थिति में आ पहुँचा है कि गुण्डा-संस्कृति के बीच न तो जनता सुरक्षित है और न कोई राजनेता।
   ऐसे में प्रस्तुत तेवरी संग्रह इतिहास घायल हैयदि शासक वर्ग के नेपथ्य को नंगा करने तथा समाजघाती तिलिस्मों को तोड़ने में थोड़ा बहुत भी सहायक होता है तो निस्संदेह यह हमारी उन मान्यताओं की सफलता रहेगी जो अन्ततः मानवीय मूल्यों से जुड़ती है।

[ इतिहास घायल हैतेवरी-संग्रह की भूमिका ]

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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630  

तेवरी की जननी ग़ज़ल + रमेशराज


                                                                       रमेशराज      
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तेवरी की जननी ग़ज़ल 

+रमेशराज

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  आदि काल से शोषक वर्ग आम आदमी को लूटता, आम की तरह चूसता रहा है और यह शोषण का सिलसिला आज तक जारी है। शोषक वर्ग ने अपने को सुरक्षित रखने, वर्ग
विस्तार करने, अपना प्रभुत्व स्थापित करने, सुविधाएँ ऐशोआराम भोगने, सत्ता छिनने के खतरे से बचने, बाजीगरों की तरह चालाकी के साथ जनता की जेबें कतरने, अपने गोदामों को सोने-चाँदी से भरने, आदमी को नपुंसक, नाकारा, भाग्यवादी बनाने तथा शोषण को स्थायित्व देने के लिये, आम आदमी के खिलाफ एक षड्यन्त्र रचा, जिसका नाम था कथित धर्म, जिसका नाम था कथित ईश्वर।
   इस षड्यन्त्र की नींव पड़ी वैदिक काल में और फिर धीरे-धीरे साम्राज्यवादी शक्तियाँ अपना प्रभुत्व जमाती चली गयीं। इस शक्तियों ने अपने को और ज्यादा शक्तिशाली बनाने के लिये कथित धर्मग्रन्थों का योजनाबद्ध तरीके से सृजन कराया और उसे जनता को अफीम की तरह चटा दिया, ताकि वह विचारलुंज, भाग्यवादी, अन्धविश्वासी होकर, हाथ पर हाथ रखकर सिर्फ अच्छे दिनों का इन्तजार करती रहे। पूर्वजन्म के पापों का प्रायाश्चित करती रहे। दूसरी तरफ राजा महलों में सुरासुन्दरी का स्वाद चखते रहें। जनता की खून-पसीने की कमाई खजाने में भरते रहें।
   सम्राटों, सामन्तों की काली करतूतों, जनविरोधी  नीतियों, अय्याशियों, साजिशों का पर्दापफाश न हो जाये, इसके लिये उन्होंने तत्कालीन कवियों को राजाश्रय देकर भाटों में तब्दील कर दिया, ताकि वे जनता के सामने सच्चाइयाँ न उगल कर सिर्फ ऐसे साहित्य का सृजन करें, जिससे साम्राज्यवादी शक्तियों को पुष्टिकरण मिले। कवियों की एक पूरी की पूरी जमात कुछ इसी तरह की साजिशों में संलग्न रही। जिसके परिणाम स्वरूप आम आदमी होगा वही राम रचि राखा’, ‘सबहिं नचावत राम गुंसाई’, ‘मेरे तो गिरिधर गोपालजैसे अन्धविश्वासों की अफीम लगातार चाटता चला गया। पूर्वजन्म के पाप की धारणाएँ, दैवीय मान्यताएँ शोषकों को शोषण के लिये खुली छूट देती चली गयीं।
   खैर.. यह बात थी उस समय के साहित्यकारों की। आधुनिक साहित्य की भी लगभग यह स्थिति रही है। कुछेक अपवादों को छोड़कर आज भी साहित्यकार सरकार की जीहूजुरी कर रहे हैं। इनाम पा रहे हैं। पुरस्कारों, उपाधियों  से अलंकृत हो रहे हैं, पाठ्य-पुस्तकों में स्थान पा रहे हैं और ऐसे साहित्य का सृजन कर रहे हैं, जो जनघातक ही नहीं, जनहिंसक भी है।
   जब भी साहित्य सामाजिक संदर्भों, हितों से हटकर या कटकर लिखा जाता है, वह अधिकांशतः सामाजिक अहित ही नहीं करता, सत्ताधारियों, जनविरोधियों की काली करतूतों पर पर्दा भी डालता है। आज की तथाकथित महान कविता के प्रवृत्तकों में चाहे छायावादी युगीन कवि हों या प्रतीकात्मक नयी कविता के जनक, सब के सब सत्ता की थैली के चट्टे-बट्टे रहे हैं, जिन्होंने साफगोई के खतरे न उठाकर सिर्फ पदक बटोरे, जमूरों वाली शैली अपनाकर सत्ता के बाजीगरों की जीहुजूरी की।
   ऐसे साहित्य के साथ-साथ हर युग में एक ऐसे साहित्य का भी सृजन हुआ जो जनहितकारी था। कुसत्ताद्रोही था, जिसमें अभिव्यक्ति के खतरे उठाये गये थे। कबीर’, महाप्राण निराला’, धूमिल’, दिनकर, ‘नागार्जुनआदि-आदि कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने जनविरोधी शक्तियों के खिलाफ कान्ति की एक अमर मशाल जलाई। उसी मशाल को लेकर हम भी तेवरीके माध्यम से शोषक, जनद्रोही प्रवृत्तियों के खिलाफ एक आन्दोलन, एक जनक्रान्ति, एक संघर्ष की शुरूआत कर रहे हैं। शोषित, सर्वहारा वर्ग के भीतर छुपी हुई विद्रोह की आग को तलाश रहे हैं। आदमी को आदमखोरों के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं।
   इस भूमिका को पढ़ते-पढ़ते पाठक मन पर एक प्रश्न उभरना स्वाभाविक है-‘ आखिर ये तेवरीहै क्या’? इसे समझाने के लिये हम अपनी बात ग़ज़ल से शुरू कर रहे हैं। ग़ज़ल का अर्थ है- ‘प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत। सामान्ती युग में राजा-महाराजाओं को खुश करने के लिये उर्दू शायर ग़ज़लों में औरत के जिस्म की खूबियाँ बखान कर राजमहलों में महफिलों की रौनक बढ़ाया करते थे, अशर्फियाँ बटोरा करते थे। कुल मिलाकर ग़ज़ल एय्याशों के लिए एक मनोरन्जन का साधन थी। साथ ही शायरों की रोजी-रोटी, धन-दौलत लूटने की एक चाटुकारी प्रवृत्ति। कहने का मतलब यह है, इसका आम आदमी की समस्याओं, सामाजिक यथार्थ या जनहित से कोई वास्ता नहीं था। इसी कारण यह विधा नंगी जाँघों के जंगल में भटक कर रह गई, जिसमें सुर्ख गालों पर चुटकियाँ थी। मख्मूर आँखों की मदिरा थी, बाँहों के झूले थे, शोखी थी, नजाकत थी। कुल मिलाकर आदमी को पथभ्रष्ट करने का पूरा साजो-सामान थी ग़ज़ल।
   लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अंग्रेजों के भारतीयों पर अत्याचारों, दमन, शोषण, कुशासन ने ग़ज़ल के तेवर बदलने शुरू कर दिये और यही से हुआ तेवरीका जन्म, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ, एक संघर्ष, एक इन्कलाब, एक व्रिदोह, एक जनचेतना की शुरुआत की। क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिलकी कथित ग़ज़लें कुछ इसी प्रकार की थीं, जिनसे तेवरीपन की एक बारूदी बू आती है-
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजू--कातिल में है।।
   इसके बाद तेवरी अनेक हाथों में पलकर बड़ी होती गई। स्व. दुष्यन्त कुमार ने तो आपातकाल में तेवरी के सीने में तिलमिलाते विद्रोह के ज्वालामुखी भर दिये। उसके हाथों में शब्दों के डाइनामाइट थमा दिये।
   तेवरी जन्म के बाद लगातार जवान तो होती गई, लेकिन हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य यह रहा कि इसके नामकरण की आवश्यकता किसी भी कवि ने नहीं महसूसी। पाँच-छह दशक गुमनामी की जीवन जीते-जीते नवें दशक में इसका नामकरण हुआ तेवरी। इस सदर्भ में डॉ. देवराज एवं डॉ. ऋभदेव शर्मा देवराजका नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय माना जा सकता है।
   यह सत्य है कि तेवरी की जननी ग़ज़ल है और इसी कारण इसके बहुत से गुण जैसे छन्द, शिल्प आदि बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। लेकिन यदि सन्तान को भी माँ के नाम से पुकारा जाये, यह कहाँ तक उचित है? या हम अपनी बात यूँ स्पष्ट करें, यदि एक विषभरी शीशी को खाली करके उसमें अमृत भर दिया जाये, मगर उसके ऊपर से विष का लेबल न छुड़ाया जाये, ऐसे में क्या लोग इस अमृत को अमृत का मानसिकता के साथ गले उतार सकेंगे? क्या उन्हें अमृत भी जहर नहीं दिखाई देगा? उत्तर स्पष्ट है-‘हां। कुछ इसी तरह की दुर्गति ग़ज़ल के साथ जुड़ी हुई है। इसी कारण ग़ज़ल और तेवरी की स्पष्ट व अलग-अलग पहचान कराना नितान्त आवश्यक हो गया है।
   तेवरी जिस जमीन पर पैदा हुयी, खड़ी हुयी, बड़ी हुयी-वह खुरदरी, पथरीली, कँटीली, विषमताओं, संत्रास, शोषण, घुटन, कुंठाओं की त्रासद पगडंडियों से भरी हुयी है, जहाँ पक्षियों का शोर सुनायी नहीं देता, नदियाँ कल-कल नहीं करतीं। फूल नहीं खिलते। वसन्त नहीं आता | बल्कि आदमी को खाकी बर्दियाँ बूटों से कुचलती हैं, टोपियाँ माँ-बहिनों की इज्जत पर डाके डालती हैं। बन्दूकें आग उगलती हैं। मजदूर का शोषण होता है। शोषक तोदें फुलाते हैं। मूछों पर ताव देते हैं। सुविधा के नाम पर आदमी की आँतों में भूख की आरी चलती है। तस्करी, राहजनी, लूटा-खसोटी होती है। पर सत्ता के कान पर ऐसी खबरों की जूँ तक नहीं रेंगती। बल्कि विधायक, सांसद स्वयं डकैतों, भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देते हैं। वसंत के नाम पर झूठे वादों की नागफनी के जंगल में भरमाते हैं। खुशबू के नाम पर सडाँध दे जाते हैं।
   तेवरी इस जमीन पर खड़ी होकर आदमी के खिलाफ हो रही साजिशों से आँखें नहीं मूँदती। यातनाओं, अत्याचारों, त्रासदियों, हादसों से भरे रास्तों से कतरा कर नहीं चलती। बल्कि वह जंगलों को काटती-छाँटती हुयी आगे बढ़ती है। शोषक प्रवृत्तियों के खिलाफ जनचेतना लाती है। संघर्ष की बात कहती है। देखा जाये तो तेवरी आदमी की जि़न्दगी में घुली तल्खियत का एक ऐसा ब्यौरा है, जो पढ़ने या सुनने के बाद विचार और चिंतन के ऐसे बिन्दु पर ले जाता है, जहाँ से साजिशियों के खिलाफ आक्रोश की कुल्हाडि़याँ उछालना आवश्यक हो जाता है।
   जबकि ग़ज़ल आरम्भ से लेकर अब तक मात्र एय्यायाशों, सामन्तों को खुश या पुष्ट करती रही है। अपना खूबसूरत जिस्म दिखाकर रिझाती रही है। काँच की हवेलियों में पायल खनकाती रही है। उसने कभी भी फुटपाथ पर झौंपड़ी की जि़न्दगी की तरफ झाँककर नहीं देखा और अगर वहाँ आयी भी है तो नंगी जाँघों का भूगोल पढ़ा गयी है। यही वजह है, तेवरी अपनी माँ ग़ज़ल से व्यवहार से लेकर चालचलन तक एक दम भिन्न है। उसके एक-एक शब्द में चाकू जैसी मार है। अन्धविश्वासों, सामाजिक विसंगतियों, विकृतियों, रूढि़यों, कुआस्था, गन्दी राजनीतिक चालों के खिलाफ आक्रोश है, विद्रोह है, आक्रामकता है, बारुद जैसा विस्पफोटक है, ब्लैड जैसी धार है, जो तन मन को आन्दोलित करती चली जाती है।
   तेवरी गुस्सैल, आक्रामक, जुझारू, संघर्षशील अवश्य है, लेकिन वह अनुशासनप्रिय है और ऐसा कोई रास्ता अख्तियार नहीं करती, जो गलत हो, भ्रामक हो, विध्वंसक हो। तेवरी व्यर्थ का रक्तपात भी नहीं चाहती है। वह आदमी के लिये सुख-सुविधा माँगती है। जर्द चेहरों की खुशहाली चाहती है, भूखे को रोटी की माँग करती है, ठन्डाये चूल्हे को आग, दाल-भात माँगती है। लेकिन इसके लिये सरकारी सम्पत्ति का विनाश नहीं करवाना चाहती, बसें नहीं तुड़वाना चाहती। तेवरी लड़ाई तो लड़ती है, क्रान्ति तो करती है लेकिन हक की, शांति की, अहिंसा की। वह गुस्से को सार्थक सृजन में लगाती है, आदमी को आदमी बनाती है।
   आज जबकि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक भयंकर उथल-पुथल शुरू हो गयी है। शोषक और शोषित का एक तीखा वर्गसंघर्ष संक्रामक रोग की तरह पनप रहा है, स्थापितों और विस्थापितों के राजनीतिक हथकंडे आदमी को एक तल्खियत से सराबोर कर रहे हैं। आदमी कुंठा, घुटन, संत्रास उत्पीड़न से पनपे आक्रोश को अपने भीतर कोढ़-सा महसूस रहा है। एक सडाँधभरी व्यवस्था में हम सब जिये चले जा रहे हैं। एक दिशाहीनता हम सब पर हावी होती चली जा रही है। नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक मूल्य टूट रहे हैं। आदमी को पूर्वजों से विरासत में मिले धार्मिक अंधविश्वास धर्म के ठेकेदारों के लिये शोषण, तस्करी, लूटाखसोटी के साधन बने हुये हैं। ईश्वर के नाम पर चकले चल रहे हैं। भ्रष्टाचार हो रहा है। शासक जनद्रोही हो गये हैं। समाजवाद की अच्छीखासी घोषणाओं के बावजूद आज़ादी के इन विगत सालों में समाजवाद न आ सका, जन खुशहाली न आ सकी। आजादी का अर्थ सिर्फ नौकरशाहों, भ्रष्टाचारियों, नेताओं के टुच्चे भाषण देने, जनता का पैसा डकारने, जनविरोधी विधेयक लाने, साम्प्रदायिक दंगे भड़काने, पुलिस द्वारा महिलाओं की इज्जत लूटने-लुटवाने, लाठीचार्ज कराने, तस्करी करने, गरीबी उन्मूलन के नारे देकर पूंजीवाद को बढ़ावा देने, कालाधन कमाने और कमवाने की आज़ादी बनकर रह गया, जिससे न सिर्फ सामाजिक मूल्य टूटे हैं, बल्कि वीभत्स-घिनौने होते चले गये। स्वार्थों के कुंड में स्वाहा होते चले गये। आदमी, आदमी न रहकर शैतान बन गया। ऐसे में प्रस्तुत संग्रह अभी जुबां कटी नहींके तेवरीकारों की तेवरियाँ जनविरोधी प्रवृत्तियों को बेनकाब ही नहीं करेंगी, उन्हें चौराहे पर घसीट कर उनकी असलियत भी खोलेंगी, साथ ही पाठकवर्ग को उनकी त्रासद स्थितियों से साक्षात्कार कराते हुये किसी हल की ओर मोड़ेंगी, ऐसा विश्वास है।

[ तेवरी-संग्रह अभी जुबां कटी नहींकी भूमिका ]

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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630  

तेवरी : शोषणविहीन समाज का संकल्प +रमेशराज



                 रमेशराज


तेवरी : शोषणविहीन समाज का संकल्प 


+रमेशराज
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   इतिहास गवाह है कविता का जब भी शोषक, जनविरोधी  शक्तियों के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल हुआ है, भाषा में बारूद भरी गयी है तो उससे आदमखोरों के भीतर गुर्राता हुआ भेडि़यापन शब्दों की गोलियों से छलनी होकर सरे-आम दम तोड़ने लगा है।
   इतिहास गवाह है, कविता जब-जब भी सामाजिक यथार्थ से कतराकर चली है, ईश्वर और मोक्ष के छद्मता से भरे रास्तों पर अध्यात्म के जंगल में भटकी है या एक अजीब स्वप्नलोक में विचरी है, तब-तब आम जनता की गर्दन पर पूँजीवादी ढाँचे के शोषण की तलवारें भरभरा कर टूटी हैं।
   इतिहास गवाह है, कथित भारतीय स्वतन्त्रता के विगत वर्षों में पूँजीवादी शोषक व्यवस्था ने जिस तरह अपनी जड़ें जमायी हैं, गलत और भ्रष्ट मूल्यों ने आदमी के चरित्र में जिस तरह घुसपैंठ की है, धर्म, सुधार, योजना-परियोजना के नाम पर जिस तरह साजिशियों ने एक धोखे-भरा खेल खेला है, सत्ताधारी बहेलियों ने आपातकाल के दौरान जिस तरह अनुशासन, देशहित के कार्यक्रम के सब्जबाग दिखाकर जनतन्त्र की हत्या की है, उस कटुयार्थ को कविता ने देखा ही नहीं, भोगा ही नहीं, अपने सीने पर तलवार की तरह झेला भी है। यही कारण है कि स्वतन्त्रता के बाद कविता जझारू, संघर्षशील, आक्रामक होती चली गयी। उसमें एक ऐसी वैचारिक उग्रता भर गयी है, जिसमें इस कुव्यवस्था के खिलाफ कुछ कर गुजरने की ललक है।
   तेवरी समकालीन कविता का एक ऐसा ही काव्य-रूप है, जिसके एक-एक तेवर में शोषितवर्ग की पूँजीवादी, सत्ताधारी वर्ग के खिलाफ सक्रिय मोर्चेबन्दी है।
   तेवरी ने समकालीन व्यवस्था से संत्रस्त पात्रों की क्षोभातुर भावनाओं को रोमांसवादी तरीकों से बहलाकर शांत करने की कोशिश नहीं की, बल्कि उन्हें आक्रोश, एक आंदोलन, एक संघर्ष की मुद्रा में बदलने का प्रयास किया है।
   तेवरी भयंकर हताशा के घटाटोप अंधेरे के बीच मजदूर के हाथ में लगी हुई लालटेन की तरह हमारे बीच आयी है, जिससे सही मार्ग की ओर कदम बढ़ सकें।
   तेवरी मखमली गद्दों, आलीशान कोठियों से ऊब रही कविता को एक ऐसी बस्ती में ले आयी है, जहाँ कड़वे अनुभवों के इर्दगिर्द जीने की विवशता है। चेहरे की हँसी के पीछे दुःखद अर्थों की भरमार है।
   तेवरी भूख, गरीबी, दमन, अन्याय के प्रति चुप्पी साधे  हुए लोगों को उनके अधिकारों की खातिर लड़ाई लड़े जाने के लिए पुकारती ही नहीं, उन्हें एक ऐसे सोच के धरातल पर भी एकत्रित करती है, जहाँ आदमखोरों के चेहरे से आदर्शवादिता, जनसेवा, मानवता के घिनौने नकाब प्याज के छिलकों की तरह उचलने लगते हैं।
   तेवरी पूँजीवादी व्यवस्था के पिंजरे में कैद शोषित वर्ग के सपनों को मुक्त कराने के लिये शब्दों का आरी की तरह इस्तेमाल करती है ताकि आम आदमी शोषण-मुक्त आकाश के तले चैन की साँस ले सके।
   तेवरी अत्याचारियों को घेरे हुए भीड़ के बीच गुस्से से तनी हुई एक ऐसी मुट्ठी है जिसके भीतर यातना व अन्यायमुक्त समाज के सुखद संकेतों की शुरुआत है।
   तेवरी खोखली और बुर्जुआ मानसिकता की किलेबन्दी तोड़ने के लिये जूझती है, थकती है, टूटती है, लेकिन लगातार प्रहार करती है।
   तेवरी धर्म की अफीम में धुत पड़े हुए समाज की लुंज आत्मा में साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा थोपे गये अन्ध विश्वासों को जड़ से उखाड़ कर फैंक देने के लिये हल की तरह भीतर तक धंसती है और यथार्थ की जमीन को उर्वरा बनाकर उसमें सही मूल्यों, संस्कारों, संस्कृति के बीज बोती है।
   तेवरी गालिब, मजाज, दाग, मीर आदि की ग़ज़लों की तरह अपने आस-पास के परिवेश से अनभिज्ञ कलात्मक सुरुचियों की पहचान नहीं बनाती। वह तो कबीर की कविता की तरह आम आदमी के घर-घर यात्रा करती है। उसके दुःख-दर्द में सहभोगा बनती है। हर स्तर पर पराजय का मुँह देखने वाली जनता को संघर्ष लड़ाई और क्रान्ति के लिये प्रेरित करती है। तेवरी संग्रह ‘‘कबीर जि़दा हैकी तेवरियां कुछ इसी प्रकार की हैं।
[ कबीर जि़ंदा हैतेवरी-संग्रह की भूमिका ]
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630  

Monday, April 11, 2016

डॉ. मधुर नज़्मी की तेवरीकार रमेशराज से अनौपचारिक बातचीत

             तेवरीकार रमेशराज        
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तेवरी जन-जन की उस भाषा की अभिव्यक्ति है
जो सारे भारतीयों की ज़ुबान है +रमेशराज

[ प्रमुख तेवरीकार रमेशराज से प्रसिद्ध ग़ज़लकार मधुर नज़्मी की अनौपचारिक बातचीत ]

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रमेशराज, वैचारिक जमीन पर पोख्ता, ‘तेवरीपक्षके तेजस्वी संपादक, लघुकथाकार, कथाकार, गीतकार, प्रमुख तेवरीकार, बेवाक वाग्मिता, स्पष्टवादिता, पत्र-पत्रिकाओं के साहित्यिक केनवस पर छाया हुआ एक सारस्वत नाम है। रमेशराज से साहित्यिक विषयों से लगायत राजनीतिक मुद्दों पर बातें करना, विषय की घुमावदार गहराई से गुजरना है। रमेशराज साहित्यिक मानसून का नाम होने की स्थिति में अपनी पारिवेशिक सांघातिक पारिस्थितिकीसे फिलहाल जूझ रहा है किन्तु उसका अक्षर-अवदान साहित्य के शिवाले में स्वागतेय है। एक ही रचनाकार में इतनी सारी घनीभूत खूबियों की समन्वित-संदर्भित साक्षात्कार का दस्तावेजी परिणाम है। रमेशराज से मेरी मुलाकात अलीगढ़ धर्म समाज कॉलिज में पहले-पहले, कवि कथाकार समीक्षक डॉ. वेद प्रकाश अमिताभद्वारा आयोजित कवि-गोष्ठी में हुई। फिर साक्षात्कारी प्रक्रिया समारोहोपरांत पूर्ण हो सकी। मेरे प्रश्न सहित उनके उत्तर टेपांकित होकर, संक्षिप्त रूप में, रसज्ञ पाठकों की वैचारिक अदालत में बगैर किंचित परिवर्तन के ज्यों के त्यों प्रस्तुत हैं-

+मधुर नज़्मी
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मधुर नज़्मी-आप तेवरी विधा के जाने-माने हस्ताक्षर हैं। क्या आप बतलायेंगे कि तेवरी आंदोलनकी शुरुआत कब और किसने की?

रमेशराज- तेवरी आंदोलन की शुरुआत आठवें दशक के अन्त, नवें दशक के प्रारम्भ में हुई। इस विधा को तेवरीनाम से अभिभूषित करने का श्रेय श्री ऋभ देव शर्मा देवराज और डॉ. देवराज को जाता है।

मधुर नज़्मी - आप तेवरी के विधागत स्वरूप को किस प्रकार स्पष्ट करेंगे?

रमेशराज-किसी भी विधा का संबंध उस विधान से होता है जिसके अन्तर्गत किसी भी प्रकार का चरित्र प्रस्तुत किया जाता है। विधाओं का निर्माण [ खासतौर पर कविता के संदर्भ में ] दो प्रकार से होता है। एक, वे विधाएँ जो छंद के आधार पर विकसित-निर्मित होती हैं- जैसे दोहा, चौपाई आदि। दूसरे प्रकार की विधाएँ कथ्य के आधार पर वर्गीकृत की जा सकती हैं- जैसे भजन, कलमा, मर्सिया, कसीदा आदि। जहाँ तक तेवरी के विधागत स्वरूप की बात है तो यह विधा कथ्य के आधार पर संज्ञापित की गई है। तेवरी के अंतर्गत उस तेवर [ चरित्र या भावभंगिमा ] को रखा गया है जो कुव्यवस्था के शिकार, लोक या मानव को [ शोषण, पीड़ा, यातना आदि के कारण ] असंतोष, आक्रोश, विरोध, विद्रोह आदि से सिक्त करता है।

मधुर नज़्मी- इसका अर्थ यह हुआ कि तेवरी में शृंगार-वर्णन वर्जित है। इस सदंर्भ में इसे जनवादी’, ‘प्रगतिवादीमान्यताओं के अधिक निकट रखा जा सकता है। तब इसे [ तेवरी ] विधा के स्थान पर क्या नया काव्यवाद नहीं कहा जा सकता है?

रमेशराज- तेवरी कथित शृंगार की जरूर विरोधी है, क्योंकि इससे इस विधा पर व्यक्तिवाद के खतरे मँडलाने लगेंगे। मानव मूल्यों के खण्डित होने की संभावनाएँ बढ़ जायेंगी। लेकिन तेवरी में प्रेम या रति के औचित्य, सात्विकता का कहीं विरोध नहीं। दरअसल, तेवरी स्त्री या पुरुष को आगे के विकास की वस्तु मानकर नहीं चलती। इसके रिश्तों की सार्थकता, उस प्रेम-तत्त्व के भीतर देखी जा सकती है जो एक दूसरे के संघर्ष, सुख-दुःख के दायित्वबोध, साझेदारी और कर्त्तव्यों से जोड़ता है। इस संदर्भ में तेवरी जनवाद, प्रगतिवाद, मानवतावाद, साम्यवाद, यथार्थवाद जैसे किसी भी वाद से बँधकर चलने वाली विधा नहीं है। यह तो हमारे सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों की एक ऐसी रागात्मक प्रस्तुति है जिसके माध्यम से सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना की जा सकती है और अप-संस्कृति का वैचारिक विरोध। इसलिए तेवरी एक ऐसी प्रगतिशील विधा है जिसकी दृष्टि यथार्थोन्मुखी होने के साथ-साथ सत्योन्मुखी भी है।

मधुर नज़्मी शिल्प के आधार पर तेवरी और ग़ज़ल का स्वरूप एक ही जान पड़ता है, तब इसे तेवरी कहने का औचित्य क्या है?

रमेशराज- बड़ा ही महत्वपूर्ण सवाल उठाया है आपने। सतही तौर पर देखने से ऐसा जरूर लगता है कि तेवरी और ग़ज़ल का शिल्प एक जैसा है लेकिन यदि हम सूक्ष्मता के साथ विवेचन करें तो तेवरी और ग़ज़ल के शिल्प में मूलभूत अन्तर है। तेवरी मात्रिक व वर्णिक छन्दों में लिखी जाती है जबकि ग़ज़ल कुछ निश्चित बह्रों में कही जाती है। तेवरी में मतला, मक्ता, शेरों की निश्चित व्यवस्था जैसा प्रावधान नहीं होता। कुछ लोगों को इसकी अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था ग़ज़ल के रदीफ-काफियों जैसी व्यवस्था की नकल जान पड़ती है। ऐसे लोगों से विनम्रतापूर्वक बस यही निवेदन है कि इस प्रकार की व्यवस्था आदिकालीन कवि चन्द्रवरदायी से प्रारम्भ होती है और इस तरह की परम्परा का निर्वाह सूर, तुलसी, कबीर से लेकर घनानन्द, विद्यापति, केशव, देव, ठाकुर, रत्नाकर आदि के काव्य में बखूबी मिलती है। तेवरी चूँकि हिन्दी की काव्य विधा है, इस कारण इसकी अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था में प्रस्तुत कथनभंगिमा किसी हद तक कथात्मक है जबकि ग़ज़ल में कथात्मकता शुरू से ही वर्जित है।

मधुर नज़्मी- तो इसका अर्थ यह हुआ कि तेवरी उर्दू विरोधी हिन्दी भाषा की विधा है?

रमेशराज-अरे! यह क्या कह रहे हैं आपतेवरी में हिन्दी-उर्दू जैसा कोई विवाद नहीं। तेवरी तो जन-जन की उस भाषा की अभिव्यक्ति है जो मुसलमानों, हिन्दुओं, पंजाबियों से लेकर हम समूचे हिन्दुस्तानियों की जुबान है।

मधुर नज़्मी- आज तेवरीकार जिस प्रकार का कथ्य तेवरी में दे रहे हैं, इस प्रकार का कथ्य तो साहिर’, ‘फिराक’, ‘फैज अहमद फैज’, दुष्यन्त कुमार आदि प्रगतिशील शायरों, कवियों की ग़ज़लों में भी मौजूद है लेकिन उन्होंने  इस तरह की रचनाओं को कभी तेवरीनहीं कहा ?

रमेशराज-नज्मीजी, ‘ग़ज़लका कोषगत अर्थ प्रेमिका से प्रेमपूर्वक बातचीतहै। यह शृंगाररस की ऐसी विधा है जिसमें नारी को भोग-विलास की वस्तु मानकर कभी साकी के रूप में प्रस्तुत किया गया है तो कभी रक्कासा [ नर्तकी ] के रूप में। यदि साहिर, फैज जैसे प्रगतिशील शायरों ने नारी को इन भाव-भंगिमाओं से काटकर उसे एक आदर्श पत्नी, समाज-सेविका, वीरांगना आदि के रूप में प्रस्तुत किया किन्तु एक पत्नी और एक रखैलया रक्कासामें अन्तर न कर सके तो इसके लिए किसे दोषी माना जाये? इसका उत्तर आप आप भी भली-भाँति जानते होंगे।

मधुर नज़्मी- तो क्या आपकी दृष्टि में ग़ज़ल के इस बदले हुए स्वरूप को लेकर दिये गये नाम जैसे गीतिका’, ‘अनुगीत’, ‘अवामी ग़ज़ल’, ‘हिन्दी-ग़ज़लआदि में भी कोई सार्थकता अन्तर्निहित नहीं है?

रमेशराज-ग़ज़ल यदि अपने स्वरूप से कट जायेगी तो उसमें कितनी ग़ज़लियत रह जायेगी, जिसके कारण हम उसे ग़ज़ल कह सकें? यदि भजन से ईश्वर या आलौकिक शक्ति के प्रति की गई विनती काट दी जाये तो वह कितना भजनरह जायेगा? यह विचारणीय विषय है। अतः मेरी दृष्टि में ग़ज़ल के पूर्व लगाये अवामी’, ‘हिन्दीजैसे विशेषण निरर्थक ही हैं। साथ ही विशेषणों को लगने से ग़ज़लशब्द की मर्यादा मरती है। वह हास्यास्पद और अवैज्ञानिक हो जाती है। जब उर्दू,  हिन्दी की एक बोलीमात्र ही है तो ग़ज़ल को हिन्दीग़ज़ल कहना कितना तर्कसंगत है। ठीक इसी प्रकार ग़ज़ल के साथ अवामीविशेषण जोड़ना, प्रेम के व्यक्तिवादी चरित्र को अवाम के बीच संक्रामक रोग की तरह फैलाना है। इस विशेषण से कथ्य की जनसापेक्षता किसी भी स्तर पर परिलक्षित नहीं होती। गीतिकाएक छंद है। आदरणीय नीरजजी छंद की बात कर रहे हैं या इसके माध्यम से किसी विशेष प्रकार के चरित्र की। यह आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है। यही बात अनुगीतके प्रति भी लागू होती है। मेरी राय में ग़ज़ल को सिर्फ ग़ज़ल रहने दिया जाये तो अनुचित नहीं होगा।

मधुर नज़्मी- यदि मान लिया जाय कि तेवरीआक्रोश-विरोध-विद्रोह से युक्त तेवर से नामित है, यह तेवर तो हमें उपन्यास, कहानी, लघुकथा, कविता के अन्य विधाओं में भी दिखाई देता है, तब हम उन्हें तेवरी क्यों न कहें?

रमेशराज-तेवरी एक निश्चित अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था से युक्त एक ऐसी काव्य विधा है जिसमें सत्योन्मुखी संवेदनशीलता अन्तर्निहित है। तेवरी की संदर्भित व्यवस्था को दृष्टिगत न रखते हुए, यदि आप उसकी घुसपैंठ उपन्यास, कहानी आदि साहित्य विधाओं में करना चाहेंगे, तब मैं आपके प्रश्न के प्रति आपसे भी एक प्रश्न करना चाहूँगा-यदि ग़ज़ल का अर्थ प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत है तो क्या समस्त  शृंगारिक काव्य को ग़ज़ल में रखा जा सकता है?

मधुर नज़्मी- एक आखिरी सवाल और-कहीं तेवरी-आंदोलन भी अ-कविता, अगीत, -ग़ज़ल, आवामी ग़ज़ल, सहज कविता आदि की तरह लोप तो नहीं हो जायेगा? आपकी दृष्टि में तेवरी का भविष्य क्या है?

रमेशराज-नज़्मीजी हमारी दृष्टि फिलहाल तो तेवरी के प्रति संघर्ष पर टिकी है, परिणाम पर नहीं। तेवरी का भविष्य क्या रहेगा, यह तो आगामी समय ही बतला सकेगा।
        
         [श्री हरिऔध् कला भवन, आजमगढ़ ]
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630