Friday, January 7, 2022

(साक्षात्कार)तेवरी, तेवरी है, ग़ज़ल नहीं

 *तेवरी, तेवरी है- ग़ज़ल नहीं*


( तेवरीकार रमेशराज से प्रसिद्ध सहित्यसाधक राजीव कुमार झा की बातचीत )


*रमेशराज जी ! आप हिंदी कविता में तेवरी लेखन के लिए प्रसिद्ध हैं . आज तेवरी के बारे में बारे में बताएँ . यह कैसे लिखी जाती है और आपका तेवरी लेखन से कैसे लगाव कायम हुआ?*


*उत्तर-*


आदरणीय राजीव जी तेवरी को समझने के लिए आवश्यक यह कि सर्वप्रथम हम यह समझ लें कि  ग़ज़ल शास्त्रसम्मत पहचान और उसका शब्दकोशीय अर्थ क्या है?


*‘‘ग़ज़ल मूलतः अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है-‘नारी के सौन्दर्य का वर्णन तथा नारी से बातचीत’।* नालंदा अद्यतन कोष में ग़ज़ल का अर्थ [ फारसी और उर्दू में ] ‘ शृंगार की कविता’ दिया गया है। लखनऊ  हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित 'उर्दू-हिन्दी शब्दकोष' में ग़ज़ल का अर्थ-‘प्रेमिका से वार्तालाप है।’

डॉ. नीलम महतो का भी मानना है-‘ ग़ज़ल अरबी शब्द है जिसका अर्थ-‘सूत का ताना है। जब यह शब्द स्त्रियों के सन्दर्भ में प्रयुक्त होता है तो उनसे प्रेम-मोहब्बत की बातें करना हो जाता है। उनकी सुन्दरता की तारीफ करना हो जाता है। उनके साथ आमोद-प्रमोद करना हो जाता है।’’ {तुलसी प्रभा, सित-2000 पृ. 18}


अब हम आते है तेवरी के शब्दकोशीय अर्थ पर-


*' वृहद हिंदी शब्दकोश ' [ सम्पादक- कालिका प्रसाद ] के षष्टम संस्करण जनवरी - १९८९ के पृष्ठ -४९० और ४९३ पर तेवर [ पु . ] शब्द का अर्थ - ' क्रोधसूचक भ्रूभंग ', ' क्रोध-भरी दृष्टि ' , ' क्रोध प्रकट करने वाली तिरछी नज़र '  बताने के साथ-साथ  ' तेवर बदलने ' को - ' क्रुद्ध होना ' बताया गया है | ' तेवरी ' [स्त्री. ] शब्द ' त्यौरी ' से बना है | त्यौरी या ' तेवरी ' का अर्थ है - ' माथे पर बल पड़ना ' , ' क्रोध से भ्रकुटि का ऊपर की और खिंच जाना ' |*


*तेवरी के बारे में डॉ हरिवंश प्रसाद मधुकर जी का मानना है कि-*

जहाँ तक तेवरी के शाब्दिक अर्थ, उसके आत्मरूप अर्थात् चरित्र की बात है तो-‘‘ तेवरी’ शब्द  ही अपने आप में परिभाषा, स्वरूप तथा स्वतंत्र अस्तित्व-बोध का परिचय देता है। वस्तुतः तेवरी-अर्थात् तेवरवाली अभिव्यक्ति से परिपूर्ण रचनात्मक नवचेतना का प्रतीक है। अभिव्यक्ति की भंगिमा, व्यंजना का स्वरूप तथा दृश्य जगत के युगीन यथार्थ की आन्तरिक बोध-शक्ति का अनुभव और चिन्तन की गहराई से उद्भूत होकर उपस्थित होती है। जिसमें युगीन विसंगतियों, मानव-जीवन के अस्तित्व के संकट से उत्पन्न प्रतिक्रिया स्वरूप आक्रोश, क्रोधदि के यथार्थ-चित्र हमें उद्वेलित एवं संत्रास्त जीवन के विविध पक्षों को साकार करते हैं। तेवरी में अभिव्यक्ति की भंगिमा ही मुख्य रूप से उसे काव्य-रचना की सतत प्रवाहवान धारा में नया स्थान प्रदान करने की व्यापक योग्यता रखती।’’ *[ डॉ . हरिवंश प्रसाद शुक्ल ‘मधुकर’, ‘तेवरीपक्ष,जन.-मार्च-07, पृ. 15]*


हमें यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं है कि तेवरी की जननी ग़ज़ल ही है। और इसी कारण इसमें अपनी माँ जैसी शारीरिक संरचना मिलती है। किंतु दोनों के आत्म,कर्मक्षेत्र अथवा यूँ कहें कि चरित्र एकदम भिन्न है।


तेवरी एक ऐसी विधा है जिसमें जन-सापेक्ष सत्योन्मुखी संवेदना अपने ओजस स्वरूप में प्रकट होती है।  तेवरी का समस्त चिन्तन-मनन उस रागात्मकता की रक्षार्थ प्रयुक्त होता है, जो अपने सहज-सरल रूप में नैतिक, निष्छल, निष्कपट और प्राकृतिक है। रागात्मकता की यह प्राकृतिकता आपसी प्रेम, भाईचारे अर्थात् मानवीय सम्बन्धों की प्रगाढ़ता, सद्भाव के मंगलकारी विधान में अभिवृद्धित , अभिसंचित, पुष्पित-पल्लवित और उत्तरोत्तर विकसित होती है। प्रेम-तत्व का उद्दात्त, सदाचारी, सर्वमान्य रूप या स्वरूप यदि मर्यादा का पालन करते हुए शोभायमान हो तो तेवरी के लिए सहज ग्राहय है। तेवरी प्यार का नहीं, प्यार के व्यापार का विरोध करती है। तेवरी शृंगार के नहीं, पापाचार या व्यभिचार के खिलाफ अपनी त्यौरी बदलती है। यही तेवरी का तेवरीपन है।


तेवरी के इसी चरित्र की वास्तविक पहचान करते हुए *"सहज कविता" के प्रख्यात संस्थापक और जानेमाने विष्वविख्यात संस्थापक डॉ रवींद्र भ्रमर मानते है कि-तेवरी युवा आक्रोश की तीसरी आँख है।*

वे कहते हैं कि-

अलीगढ़ के बुद्धिजीवीवर्ग के बीच आयोजित श्री बेज़ार की काव्यकृति ‘एक प्रहारः लगातार’ के विमोचन-समारोह की अध्यक्षता का भार मुझे सौंपा गया।  इसके लिये ‘सार्थक-सृजन प्रकाशन’ के नियामक और ‘तेवरी’ के सूत्रधार श्री रमेशराज का मैं विशेष आभारी हूँ। उक्त अवसर पर मैंने ‘तेवरी’ को ‘युवावर्ग की तीसरी आँख’ की संज्ञा दी थी। 

पुराण-पुरुष शिव की तीसरी आँख जब खुलती है तो किसी ज्वालामुखी की भांति तप्त लावा उगलती है और पाप का प्रत्यूह तथा कामाचार का अवरोध जलकर राख हो जाता है। ध्यान-मग्न शिव की समाधि  बड़ी मुश्किल से टूटती है लेकिन जब कभी ऐसा होता है तो कोहराम मच जाता है-कृत्रिम वसन्त में  आग लग जाती है। तेवरी के शब्द-संधान को देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा है कि वर्तमान सामाजिक विसंगतियों और सामाजिक विद्रूपताओं में आग लगाने के लिये युवा-आक्रोश की तीसरी आँख खुल गई है। 

विश्व-वाड्.मय का इतिहास साक्षी है कि कविता से फूल और त्रिशूल दोनों का काम लिया गया है। सामाजिक क्रान्ति के सन्दर्भ में कवि की कलम हरसिंगार की टहनी में तलवार उगा लेती है। आज के सामाजिक जीवन में जो अन्याय, उत्पीड़न और शोषण की विभीषिका है, उसी के समानान्तर युवा कवियों की कलम अन्याय की शृंखला को काटने के लिए अत्याचार और शोषण के पूँजीवादी प्रपंच को जलाने के लिये तेवरी  के  माध्यम से बारूदी भूमिका तलाश कर रही है।

 

 तेवरी की इसी चारित्रिक पहचान को स्पष्ट करते हुए *डॉ विशन कुमार शर्मा स्पष्टरूप से घोषणा करते हैं कि-*


तेवरी का उद्भव एक ऐसे समाज की देन है, जिसे विशेष रूप से राजनेताओं ने सताया है। जैसे-कोई स्वतंत्र सिंहों की वनस्थली में मदमस्त हाथी अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहे। लोकतंत्र का प्रत्येक मानव स्वतंत्र सिंह है और नेता मदमस्त हाथी। उसका प्रभुत्व तभी तक है, जब तक कि चुनाव का चपेटा लोकतंत्र के मानव रूपी सिंहों के द्वारा मदमस्त हाथी के कानों पर नहीं पड़ता। ‘तेवरी के कवि’ इस ‘चपेटे’ को नेता के कानों पर बुरी तरह से पड़वाने की तैयारी कर रहे हैं। एक प्रकार से तेवरी का सबसे प्रबल पक्ष शोषकवर्ग पर कुठाराघात करना ही है। यद्यपि अन्य कुछ सामाजिक पक्ष भी ‘तेवरी’ के अपने मूल मुद्दे हैं। हिंसा, बलात्कार, मुनाफाखोरी भी इसकी विशिष्ट प्रवृत्ति को प्रकट करते हैं। और इन सबके मूल में हैवानियत को खरीदने वाला वह नेता ही है।


चूंकि *ग़ज़ल का अर्थ है - ' प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत '* , जबकि तेवरी का अर्थ है - ' कुव्यवस्था का विरोध ', इसी कारण तेवरी को समकालीन यथार्थ की सत्योंमुखी प्रस्तुति के रूप में माना - स्वीकारा गया है |

 *तेवरी का स्थायी भाव ' आक्रोश '  और इससे बनने वाले रस का नाम ' विरोध ' है |* जबकि

ग़ज़ल एक प्रणय - गीत होने के कारण शृंगार रस की विधा है |

 *ग़ज़ल की सम्पूर्ण व्यवस्था में एक ही बहर अर्थात् छंद का समावेश किया जाता है , जबकि तेवरी के हर तेवर [कथित शे'र ] में दो छंदों का समावेश कर सम्पूर्ण तेवरी को दो - दो छंदों में भी लिखा जाने लगा है |* 

 तेवरी की पहली , तीसरी , पाँचवीं , सातवीं ....पन्क्तियों में मान लो यदि कोई सोलह मात्राओं का छंद निर्धारित किया गया हो तो दूसरी , चौथी , छठी , आठवीं ... पन्क्तियों में 14 , 18 , 25 , 30 मात्राओं का अन्य छंद प्रयोग में लाया जा सकता है | इस प्रकार ग़ज़ल के छंद से अलग विशेषता वाला पृथक दो पन्क्तियों [कथित मिसरे ] का तेवर [कथित शे'र ] बनाया जा सकता है | तेवरियों में इस विशेषता का आलोक आपको अवश्य मिलेगा | तेवरियों में एक नहीं अनेक नये छंदों का मकरंद आप सबको चकित कर सकता है | नया या नये छंद का नाम क्या है या होना चाहिए , सुधिजन जानें |

 तेवरी के हर तेवर में एक नहीं दो-दो स्वरांत [कथित काफिये ] भी अब तेवरी की शोभा बढ़ाने लगे हैं , जबकि ग़ज़ल के हर शे'र में एक ही काफिया आता है | ठीक यही व्यवस्था तेवरी के समान्त [ कथित रदीफ़ ] पर भी लागू होती है |

 

कहीं - कहीं ग़ज़ल के रदीफ़ - काफियों जैसी  व्यवस्था यदि तेवरी में दृष्टिगोचर होती भी है तो यह व्यवस्था ' कवित्त ' में भी मिलती है | क्या ' कवित्त ' को ग़ज़ल कहने या मानने का साहस किसी में है ??

 *तेवरी में गीतात्मकता पायी जाती है* अर्थात् इसके सारे तेवर एक दूसरे के पूरक बनकर सम्पूर्ण कथ्य को पूर्णता प्रदान करते हैं, जबकि ग़ज़ल का प्रत्येक शे'र अपनी स्वतंत्र सत्ता लिये हुए होता है | 

ग़ज़ल से पृथक तेवरी की विशेषताओं को दरकिनार कर अगर कोई ग़ज़ल का जानकार तेवरी को फिर भी ग़ज़ल मानता है तो उसे 'नाटक ' और ' एकांकी ' , 'लघुकथा ' और ' लघुकहानी ' तथा 'चुटकला ' और ' व्यंग्य ' के अन्तर को ध्यान में रखते हुए यह बताना ही चाहिए कि ग़ज़ल की हू - ब - हू नक़ल ' हज्ल ' ग़ज़ल से अलग विधा कैसे और क्यों है ??


*अपने प्रिय लेखकों और कवियों के बारे में बताएँ ?*


*उत्तर-*

हिंदी साहित्य की समीक्षा और आलोचना के क्षेत्र में मुझे सर्वाधिक प्रभावित आचार्य रामचंद्र शुक्ल के सूक्ष्म और सार्थक विवेचन ने किया। मुंशी प्रेमचन्द, श्रीलालशुक्ल का कथा साहित्य बेहद ऊर्जावान लगा।

काव्य के क्षेत्र में रामधारी सिंह दिनकर, कुंअर बेचैन, दुष्यंत कुमार के अतिरिक्त पाश और सुदामा पांडेय धूमिल की मुक्तछंद कविताओं में हर प्रकार का ओज महसूस हुआ। उर्दू कवि साहिर लुधियानवी को बहुत उम्दा शायर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।


 *आप तेवरीपक्ष पत्रिका के बारे में बताएँ ?*


*उत्तर-*

आदरणीय राजीव जी, तेवरी नामकरण और आंदोलन के प्रमुख सूत्रधार डॉ देवराज तथा डॉ ऋषभ देव शर्मा देवराज रहे हैं।

सम्भवतः 1980 या 81 का काल रहा होगा, तब ग़ज़ल के समानांतर तेवरी शीर्षक से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हो रही थीं। उस समय मैं बालगीत अधिक लिखता था और वे बालगीत भारतवर्ष की स्थापित व्यावसायिक पत्रिकाओं और पत्रों में निरन्तर छपते थे। उस समय में ग़ज़लें बहुत कम लिखता था। ग़ज़ल के शब्दकोशीय अर्थ *"प्रेमिका से प्रेमपूर्वक बातचीत"* से इतर मेरी ग़ज़लें समकालीन व्यवस्थविरोध को समाहित किये रहती थीं। इस तीक्ष्ण तल्ख, तिक्त अभिव्यक्ति को ग़ज़ल मानने को मेरा मन मुझे बार-बार आशंकाओं में धकेल देता था। जब ग़ज़ल जैसी संरचना में मुझे तेवरी शीर्षक से अन्य कवियों की रचनाएं दिखीं तो मुझे मेरी उक्त उलझन का समाधान मिल गया। मैं भी तेवरी शीर्षक से रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में छपवाने लगा। 


इसी बीच खतौली आयोजित "तेवरी सम्मेलन में, तेवरी के पुरोधा *देवराज द्व* ने मुझे आमंत्रित किया।

उस आयोजन में हिंदी के बड़े-बड़े विद्वानों ने शिरकत की।


तेवरी पर दिए गए प्रवचनों और पढ़े गए पर्चो को सुनते हुए मुझे एक ही बात खली कि समस्त विद्वान तेवरी की चर्चा ग़ज़ल की चर्चा किये बिना कर रहे थे, जबकि हिंदी के अधिकांश विद्वान तेवरी को ग़ज़ल ही मानते आ रहे थे। मैंने वहां चर्चा के दौरान कहा कि- *ग़ज़ल ,पर चर्चा किये बगैर यदि तेवरी की स्थापना की जाएगी तो "तेवरी ग़ज़ल ही है" यह भ्रम सदैव बना रहेगा। इसलिए हमें यह तो बताना ही पड़ेगा कि तेवरी आखिरकार ग़ज़ल से किसप्रकार पृथक है?*

एक सही प्रश्न को उस सम्मेलन में जिसप्रकार दरकिनार किया गया, मन बहुत आहत हुआ। और उसी समय हम अलीगढ़ के साथियों ने फैसला लिया कि अलीगढ़ से तेवरी के आत्मरूप और शिल्प को स्पष्ट करने के लिए एक पत्रिका निकाली जाए। लगभग 6 माह के कठोर श्रम के परिणामस्वरूप तेवरीपक्ष का प्रवेशांक और मेरे ही सम्पादन में एक तेवरी-संग्रह-अभी ज़ुबाँ कटी नहीं" साकार रूप में सामने आया, जिसका विमोचन काकोरी कांड के प्रमुख क्रन्तिकारी श्री मन्मथ नाथ गुप्त के करकमलों से हुआ।


बालगीतों के सृजन को छोड़ तेवरी आंदोलन का झंडा सम्हाले आज भी कम से कम मैं तो संघर्षरत हूँ ही। इस पड़ाव तक आते-आते जाने कितने तेवरीकार जुड़े और साथ छोड़ भी गए।

तेवरीपक्ष सीमित साधनों के बीच अब भी यदाकदा प्रकाशित होती रहती है। अब बस मैं यही कहना चाहूंगा कि *तेवरी* नामक दीप को बुझते हुए नहीं देखना चाहता।


 *हिंदी का मौजूदा साहित्यिक परिवेश आपको कैसा प्रतीत होता है ?*


 *उत्तर-*

हिंदी साहित्य का वर्तमान परिवेश अत्यंत निराशाजनक है। मौलिक और समाजसापेक्ष चिंतन का नितांत अभाव है। आज का रचनाकार या तो मन्च पर चुटकुले बाजी को लेकर व्यस्त और मस्त है। या सियासत की पूंछ पकड़कर साहित्य की वैतरणी पार करना चाहता है। गहन और लोकचिन्ता को लेकर बने अभाव ने भारतीय संस्कृति का जिस प्रकार नया भ्रामक रचाव दिया है, उससे  सामाजिक सद्भाव बिखराव और विखण्डन के घावों से भर गया है। सच कहूं तो आज साहित्य के नाम पर जो नाटक जारी है, उसके भीतर एक संक्रामक बीमारी है, जो हमारे सामाजिक ताने-बाने को नष्ट करने पर आमादा है।


*रमेशराज जी अपने पारिवारिक परिचय और साहित्यिक योगदान पर भी थोड़ा प्रकाश डालिए*


*उत्तर-*


मेरा जन्म १५ मार्च सन १९५४ मैं गांव-एसी, जनपद-अलीगढ़, (उत्तर प्रदेश) के एक गरीब परिवार में हुआ। पूरा नाम रमेशचन्द्र गुप्त है । मैंने एम.ए. हिंदी में की। पिताश्री लोककवि रामचरन गुप्त ब्रजभाषा साहित्यकार और स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे।

पिताश्री की विरासत को आगे बढ़ाते हुए मैंने जो साहित्य की सेवा की वह इस प्रकार है-


*सम्पादित कृतियाँ-*

1.तेवरीपक्ष (त्रैमासिक)

2.अभी जु़बां कटी नहीं (तेवरी-संग्रह)

3.कबीर जि़न्दा है (तेवरी-संग्रह)

4.इतिहास घायल है (तेवरी-संग्रह)

5.एक प्रहारः लगातार (तेवरी-संग्रह)


*स्वरचित कृतियां*

*(रस से संबंधित)*


1.तेवरी में रस-समस्या और समाधान

2.विचार और रस (विवेचनात्मक निबंध)

विरोध-रस (शोध-प्रबंध)

3.काव्य की आत्मा और आत्मीयकरण (शोध-प्रबंध)


*तेवर-शतक-(लम्बी तेवरियां)-*


1.दे लंका में आग, 

2.जै कन्हैयालाल की, 3.घड़ा पाप का भर रहा

4.,मन के घाव नये न ये , 5.धन का मद गदगद करे,

6.ककड़ी के चोरों को फांसी,

7. मेरा हाल सोडियम-सा है,

8.रावण-कुल के लोग,

9.अन्तर आह अनंत अति,

10.पूछ न कबिरा जग का हाल, 


 *चर्चित तेवरी-संग्रह*

*(शतक)-*


1.ऊघौ कहियो जाय (तेवरी-संग्रह),

2.मधु-सा ला (शतक),.जो 3.गोपी मधु बन गयीं (दोहा-शतक),

4.देअर इज एन ऑलपिन (दोहा-शतक),

5.नदिया पार हिंडोलना (दोहा-शतक),

6.पुजता अब छल (हाइकु-शतक)


*मुक्तछंद कविता-संग्रह-*

1.दीदी तुम नदी हो, 

2.वह यानी मोहन स्वरूप


*बाल-कविताएं*

1.राष्ट्रीय बाल कविताएं


*पुरस्कार और सम्मान-*


‘साहित्यश्री’,अलीगढ़

‘उ.प्र. गौरव’, अलीगढ़

‘तेवरी-तापस’, होशंगाबाद (म0प्र0)

‘शिखरश्री’,अलीगढ़

अभिनंदन-सुर साहित्य संगम, एटा

'परिवर्तन तेवरी-रत्न',बुलंदशहर

Tuesday, September 10, 2019

तेवरी को विवादास्पद बनाने की मुहिम +रमेशराज



तेवरी को विवादास्पद बनाने की मुहिम

+रमेशराज 
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           ग़ज़ल-फोबिया के शिकार कुछ अतिज्ञानी हिन्दी के ग़ज़लकार तेवरी को लम्बे समय से ग़ज़ल की नकल सिद्ध करने में जी-जान से जुटे हैं। तेवरी ग़ज़ल है अथवा नहीं] यह सवाल कुछ समय के लिये आइए छोड़ दें और बहस को नया मोड़ दें तो बड़े ही रोचक तथ्य इस सत्य को उजागर करने लगते हैं कि हिन्दी में आकर ग़ज़ल की शक़ल से गीतनुमा कुल्ले तो फूट ही नहीं रहे हैं]  उसमें हिन्दी छन्दों की जड़ें भी अपनी पकड़ मजबूत करती जा रही हैं।
      Hkys gh उर्दू-फारसी के जानकार हिन्दी ग़ज़लकारों पर हँसें] बहरों के टूटने की शिकायत करें लेकिन हिन्दी का ग़ज़लकार ग़ज़ल की नयी वैचारिक दिशा तय करने में लगा हुआ है। हिन्दी में ग़ज़ल अब नुक्ताविहीन होकर *गजल’ बनने को भी लालायित है। उसकी शक़्ल भले ही ग़ज़ल जैसी हो लेकिन उस शक़्ल की अलग पहचान बनाने के लिये कोई उस पर *गीतिका’ का लेप लगा रहा है तो कोई उस पर *मुक्तिका’ का पेंट चढ़ा रहा है। ग़जल के स्वतंत्र व्यक्तित्व की पहचान स्थापित करने की इस होड़ में ग़ज़ल को *नई ग़ज़ल, *अवामी ग़ज़ल, व्यंग्यजल*] *अग़ज़ल] *सजल’ के कीचड़ esa भी धकेला जा रहा है। नये-नये नामों के कीचड़ में सनी]  कुकुरमुत्ते की तरह उगी और तनी]  इसी हिन्दी ग़ज़ल को देखकर अब यह आसानी से तय किया जा सकता है कि-
हिन्दी में ग़ज़ल ग़रीब की बीबी है-
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“आज ग़ज़ल धीरे-धीरे गरीब की बीबी होती जा रही है। लोग उसकी *सिधाई (सीधेपन) का भरपूर और गलत फायदा उठा रहे हैं। हर कोई ग़ज़ल पर हाथ साफ कर रहा है और ग़ज़ल टुकुर-टुकुर मुँह देख रही है।“
      कैलाश गौतम, प्रसंगवश, फरवरी-1994, पृ. 51

हिन्दी में ग़ज़ल की सार्थक ज़मीन कोई नहीं
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“इधर लिखी जा रही अधिसंख्य ग़ज़लों को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दी ग़जलों के पास अपनी कोई सार्थक जमीन है ही नहीं। मेरी यह बात निर्मम और तल्ख लग सकती है। किन्तु बारीकी से देखें और हिन्दी ग़ज़ल की जाँच-पड़ताल करें तो अधिसंख्य ग़ज़लों में कच्चापन मिलेगा। दोहराव] विषय की नासमझी] अनुभवहीनता और कथ्यहीन अशआर इस कदर लिखे और प्रकाशित हुए हैं कि स्तरीय ग़ज़लें कहीं भीड़ में खो गयी हैं।“
      ज्ञान प्रकाश विवेक] प्रसंगवश] फरवरी-1994] पृ. 52

हिन्दी ग़ज़ल न उत्तम कविता है] न उत्तमगीत
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 “अभी तो मुझे हिन्दी ग़ज़ल से संतोष नहीं है-- बाजार में माल चल गया। शुद्ध के नाम पर क्या-क्या वनस्पतियां मिलावट में आ गयी]  इसका विश्लेषण  साधारण पाठक तो कर नहीं पाता। हिन्दी में लिखी जाने वाली ग़ज़ल नामक रचना न उत्तम कविता है] न उत्तम गीत।“
      डा. प्रभाकर माचवे] प्रसंगवश] फरवरी-1994 पृ. 51

शायरी चारा समझकर सब गधे चरने लगे
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“आज ग़जल के नाम पर हिन्दी में जो कुछ छप रहा है]  ऐसी रचनाओं को ही देखकर कभी समर्थ रामदास ने मराठी में कहा था-** शायरी घास की तरह उगने लगी है।“  किसी ने उर्दू में कहा-** शायरी चारा समझकर, सब गधे चरने लगे।“
                           डा. प्रभाकर माचवे] प्रसंगवश] 1994 पृ. 51
      हिन्दी में नुक़्ताविहीन *गजल’] * मुक्तिका’] ‘गीतिका’]  ‘व्यंगजल’] ‘अगजल’] ‘नयी गजल’] ‘अवामी ग़ज़ल’] ‘सजल’] की फसल के आकलन के लिये उपरोक्त तथ्यों का सत्य इस बात की चीख-चीख कर गवाही दे रहा है कि ग़ज़ल की काया की माया में कस्तूरी हिरन की तरह भटकने वाले हिन्दी ग़ज़लकार]  ग़ज़ल के उस्तादों या पारखी विद्वानों से कुछ भी समझने-सीखने को तैयार नहीं हैं। उनकी ग़ज़ल]  ग़जल है भी या नहीं] इसकी परख के लिये वे ग़ज़ल के उस्तादों के पास इसलिए नहीं जाते क्यों कि उन्हें पता है कि वे हिन्दी में ग़ज़ल को लाकर जिस प्रकार उसकी वैचारिक दिशा तय कर रहे हैं]  उसमें ग़ज़ल की मूल आत्मा *प्रणयात्मकता’  को ही नहीं] उसके शिल्प के पक्ष मतला&मक्ता को काटा-छाँटा गया है। ग़ज़ल की मुख्य विशेषता *हर शे’र की स्वतंत्र सत्ता’ को भी धूल चटाकर उसमें गीत का ओज भरा गया है। हिन्दी ग़ज़ल के इस सरोज को ये एक दूसरे को दिखा रहे हैं। एक-दूसरे के लिये प्रशंसा-गीत गा रहे हैं। लेकिन ग़ज़ल के उस्तादों से कतरा रहे हैं।
      ग़ज़ल के एक उस्ताद हैं तुपैQल चतुर्वेदी]  जो *लफ्ज’  नामक पत्रिका का संपादन करते हैं। उन्होंने लफ्ज़ वर्ष-1 अंक-4 के पृष्ठ-6364 पर हिन्दी ग़जल के एक चर्चित हस्ताक्षर आचार्य भगवत दुवे के ग़ज़ल संग्रह *चुभन’ की समीक्षा लिखी है। इस पुस्तक की ग़ज़लों को लेकर लिखी गयी भूमिका में भले ही हिन्दी ग़ज़ल के एक अन्य हस्ताक्षर डा. उर्मिलेश ने तारीफों को पुल बाँधे हों]  किन्तु *चुभन’ ग़ज़ल संग्रह के बारे में तुफैल चतुर्वेदी का क्या कहना है] आइए गौर फरमाएँ-

हिन्दी ग़ज़ल में ग़ज़ल के मूलभूत नियमों का उल्लंघन
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**समीक्षा के लिये प्रस्तुत आचार्य भागवत दुवे की पुस्तक *चुभन’  छन्द-दोष]  भाषा का त्रुटिपूर्ण प्रयोग] व्याकरण की चूक]  ग़ज़ल में शेरियत का अभाव]  ग़ज़ल के मूलभूत नियमों के उल्लंघन से भरी पड़ी है। आप किसी भी गलती का नाम लें]  वो किताब में मौजूद है।“  
      संग्रह की समीक्षा करते हुए तुफैल चतुर्वेदी आगे लिखते हैं-
हिन्दी ग़ज़ल बढ़ई द्वारा मिठाई बनाने की कोशिश
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**मूलतः *चुभन’ पुस्तक बढ़ई द्वारा मिठाई बनाने की कोशिश है। जो लौकी पर रन्दा कर रहा है]  आलू रम्पी से काट रहा है]  मावे का हथौड़ी से बुरादा बना रहा है और पनीर को फैवीकाल की जगह प्रयोग करने के बाद प्राप्त हुई सामग्री को 120 रू. में बेच सकने की कोशिश कर रहा है। यहाँ मुझे एक ऑपेरा की समीक्षा याद आती है]  जिसमें समीक्षक ने उसकी गायिका को मशवरा दिया था कि गला खराब हो तो गाना गाने की जगह गरारे करने चाहिए।“ (लफ्ज वर्ष-1 अंक-4] पृ. 63-64)
      हिन्दी के विद्वान लेखक कैलाश गौतम]  ज्ञान प्रकाश *विवेक’] डॉ. प्रभाकर माचवे और उर्दू के उस्ताद शायर तुफैल चतुर्वेदी की उपरोक्त टिप्पणियों से स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दी में लिखी या कही जाने वाली ग़ज़ल की औसत शक़ल उस ग़ज़ल की तरह है जिसकी आँखें नोच ली गयी हैं]  टाँxsa तोड़ दी गयी है]  जीभ बाहर की तरफ निकली हुई है] उसके गले से जो चीख निकल रही हैA  उसे हिन्दी ग़जलकार कथित सुन्दर ही नहीं]  सुन्दरतम शब्दों में बाँध रहा है और अपनी इस अभिव्यक्ति को ग़ज़ल नाम से मनवाने को आतुर लग रहा है।
      बहरहाल] हिन्दी साहित्यजगत में हिन्दी ग़ज़लकार काँव-काँव के महानाद की ओर अग्रसर हैं। इनके बीच उभरते हुए जो ग़जल के स्वर हैं] उनके सामाजिक सरोकार एक भयानक चीख-पुकार में तब्दील होते जा रहे हैं।

अब ऐसे हैं हिन्दी ग़ज़ल के ‘वक़्त के मंजर’
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      डॉ. ब्रह्मजीत गौतम हिन्दीग़ज़ल के चर्चित हस्ताक्षर ही नहीं] उच्चकोटि के समीक्षक और आलोचक हैं। उनका ग़जल संग्रह *वक्त के मंज़र’ इस बात की सीना ठोंककर गवाही देता है कि-
वेश कबिरा का धरे ललकारती है अब ग़ज़ल
अब तो हुस्नो-इश्क की बातें पुरानी] क्या कहूँ।
      *आत्मिका’  के रूप में डॉ. ब्रह्मजीत गौतम यह भी स्वीकारते है कि वे कबीर जैसे फक्कड़पन के कारण साहित्य के यातायात के कायदे-कानून समझे बिना ग़जल की राजधानी पहुँच गये हैं-
कायदे-कानून यातायात के समझे बिना
मैं हूँ आ पहुँचा ग़ज़ल की राजधानी] क्या कहूँ।

हिन्दी ग़ज़ल के सामाजिक सरोकार
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      कबिरा का वेश धारे डॉ. ब्रह्मजीत गौतम की ग़ज़ल किसको ललकार रही है] यह तो उनके शे’र से पता नहीं चलता]  किन्तु यह तथ्य अवश्य उजागर होता है कि उनकी ग़ज़ल ने हुस्नोइश्क की बातों को पुराना कर दिया है और एक नये रूप में पहचान बनाने के लिए सामाजिक सरोकार के सारगर्भित प्रतिमान गढ़ रही है। उनके संग्रह की प्रथम ग़ज़ल के प्रथम शे’र में ही सामाजिक सरोकार की सामाजिक विसंगतियों को नेस्तनाबूत करने के लिए युद्ध करने को तत्पर एक सैनिक जैसी पहली ललकार देखिए-
      गीत खुशियों के किस तरह गाऊँ
      बेवफा तुझको भूल तो जाऊँ।
      उक्त शे’र में आज का कबीर हुस्नो-इश्क की बातें छोड़कर किस विसंगति पर तीर छोड़ रहा है]  ग़ज़ल को अग्निऋचा बताने वाले ग़ज़ल के पुरोधा अगर बता सकें तो पूरा हिन्दी ग़ज़ल साहित्य आनंदानुभूति से भर सकता है। हमारी समझ से तो इस तीर की तासीर कोई इठलाता-मदमाती प्रेमिका ही बता सकती है।
      इसी ग़ज़ल के दूसरे शे’र में आज का कबीर इस बात के लिये अधीर है कि *जालिम’ शब्द को हिन्दी के अनुकूल किया जाये और उसे *जालिमा’  की लालिमा से और नुकीला और चमकीला बनाकर उर्दू अदब के प्रतिकूल किया जाये।
जालिमा] ग़म तेरी जुदाई का
चाहकर भी भुला नहीं पाऊं।
      जुदाई के ग़म esa जो आक्रोश उत्पन्न हो रहा है] वह प्रेमिका को *जालिमा’  बता रहा है] हमें तो इस सामाजिक सरोकार की लड़ाई में आनंद आ रहा हैA  mDr शे’र के पाठक कैसा महसूस कर रहे हैं] वे ही जानें।
      बहरहाल]  अपने इसी अनिर्वचनीय आनंद में गोता लगाते हुए आइए इस संग्रह की दूसरी ग़ज़ल पर आते हैं। इसका भी रहस्य आप सबको बताते हैं-

हिन्दी ग़ज़ल गीत की शक़ल
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      ग़ज़ल का प्रत्येक शे’र उसके अन्य शे’रों से अलग और स्वतंत्र सत्ता रखता है। यह ग़ज़ल की महत्वपूर्ण विशेषता ही नहीं उसकी अनिवार्य शर्त है।  किन्तु हिन्दी के ग़ज़लकार इस शर्त की हत्या कर हिन्दी में ग़ज़ल कुछ इस तरह कह रहे हैं कि उसकी कथित ग़ज़ल के शेरों के भाव एक-दूसरे के कथ्य के पूरक बन जाते हैं और गीत जैसा रूप दिखलाते हैं। ग़ज़ल को कीचड़ बनाकर ग़ज़ल के मलवे से उठाया गया यह कमल ग़ज़ल की कैसी शक़ल है] आइए इसका भी अवलोकन करें-
      श्री ब्रह्मजीत गौतम की दूसरी कथित ग़ज़ल में आज के मंत्री रूपी महानायक के आगमन की जैसे ही बस्ती को खबर लगती है तो इस ग़ज़ल के पहले शे’र में बस्ती-भर में खुशियाँ छा जाती हैं। दूसरे शे’र में बताया जाता है कि इस महानायक का ज्यों ही दौरे का कार्यक्रम बना था तो बस्ती की तरफ सारी सरकारी जीपें दौड़ पड़ीं। तीसरे शे’र में पंचों की पंचायत बिठाकर उसके स्वागत की तैयारियाँ कर ली गयीं। चौथे शे’र में यह निर्देश दिया गया कि उस महानायक को कौन माला पहनायेगा। और कौन उसका यशोगान करेगा। पाँचवें शे’र का दृश्य यह है कि स्वागत-स्थल को फूलों से इस तरह सजाया गया जैसे वर्षों से वहाँ फुलवारी शोभायमान हो। छठा शे’र पी.डब्ल्यू.डी. विभाग द्वारा दीवारों को पोतने और बजरी से राह सँवारने में जुट गया है। अन्तिम शे’र में महानायक के पधारने और उसके साथ फोटो खिंचाने के जिक्र के साथ-साथ महानायक के वादों की अनुगूँज को रखा गया है।
इस ग़ज़ल में ग़ज़ल के शास्त्रीय सरोकारों से अलग हर अंदाज नया है]  जो उद्धव शतक की याद को तरोताजा करते हुए बताता है कि कोई माने या न माने हिन्दी में ग़ज़ल का रूप गीत जैसा है। इस विषय में उर्दू वालों का विचार क्या है] जानना मना है। यह हिन्दी की ग़ज़ल है]  इसमें ग़ज़लियत तलाशना]  बालू से तेल निकालना है]  बिना सोचे-समझे इसे ग़ज़ल मानना है। यह ग़ज़ल कबीर का वेश धरे हमारे गलीज सिस्टम को ललकार रही है या उसकी आरती उतार रही है]  इसका अनुमान लगाना भी मना है। कुल मिलाकर ग़ज़ल के नाम पर कोहरा घना है।
      अतः बात को न बढ़ाते हुए पुनः कबीर का बानी को दुहराते हुए *वक्त के मंज़र’  संग्रह की तीसरी ग़ज़ल के चौSथे शे’र पर आते हैं। इस शे’र में आज का कबीर बता रहा है कि नायिका के कपोल के तिल ने उसे ढेर कर दिया है-
मेरा कातिल है तेरे रुख का तिल
जान मेरी तो ले गया मुझसे।

क्या बहरों का कबाड़ा कर लिखी जाती है हिन्दीग़ज़ल ?
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      नायिका के तिल पर जान न्यौछावर कर देने वाली तीसरी ग़ज़ल सम्भवतः *फाइलातुन मफाइलुन फैलुन’ बहर में कही या लिखी गयी है। जो कि 17 मात्रा की ठहरती है। इस बहर में ग़ज़ल के प्रारम्भ के दो अक्षरों में दीर्घ के बाद  लघु स्वर का प्रयोग करना आवश्यक ही नहीं] अनिवार्य है। ऐसा न होने पर मिसरा बहर ही नहीं लय से भी खारिज हो जाता है। लेकिन यह हिन्दी ग़ज़ल का ग़ज़ल की बहर से कैसा नाता है कि इस तीसरी ग़ज़ल के मतला की दूसरी पंक्ति के प्रारम्भ में *ऐसी’ शब्द]  इसके चौथे शे’र के पहले मिसरे के आरम्भ में *मेरा’ शब्द]  छठे शे’र के दूसरे मिसरे में *लेके’ शब्दों के प्रयोग के कारण *फाइलातुन’  घटक का *फाइ’ गतिभंगता का ही शिकार नहीं होता]  अपने 17 मात्राओं के निश्चत आधार को भी बीमार बनाता है। फिर भी इसे हिन्दी ग़ज़ल बताने में किसी का क्या जाता है] हिन्दी ग़ज़ल में इस तरह का दोष आता है तो आता है।
      इसीलिए तो हिन्दी ग़ज़ल में आये दोष को लेकर मस्त] बेफिक्र और मदहोश ग़ज़लकार सीना ठोंकते हुए यह बयान देकर महान बनने की कोशिश करता है-
‘जीत’ न करना बह्र की चर्चा अब हिन्दी ग़ज़लों में
वरना इक दिन लोग तुम्हें सब बल्वाई बोलेंगे!
      ग़ज़ल की जान उसकी मूल पहचान *बहर’ को हिन्दी में लिखी जाने वाली ग़ज़ल से धक्के मारकर]  टाँग घसीटकर]  बाल खींचकर बाहर कर देने से अगर हिन्दी ग़ज़लकार के कर्म में संतई’] सहनशीलता आती है और बल्वाई होने के आरोप से मुक्त हुआ जा सकता है तो आजकल इससे उपयुक्त और भला क्या वातावरण हो सकता है। ग़ज़ल के बदन से बहर का यह चीरहरण यदि हिन्दी ग़ज़लकारों के लिये सुकर्म है तो इसमें कहाँ की और कैसी शर्म है

हिन्दी ग़ज़ल के काफियों और रदीफ को विकृत बनाना क्या ग़ज़ल का ओज बढ़ाना है?
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‘वक्त के मंजर’ ग़जल संग्रह के पृ.-33 पर प्रकाशित ग़ज़ल के काफियों का रूप बेहद अनुपम है। इस ग़ज़ल में *शह्र’  काफिये के साथ कदमताल करते हुए *लहर’ और *नहर’ काफिये *लह्र’ और *नह्र’  बनकर लँगड़ाते हुए चल रहे हैं। *लहर’और *नहर’ काफियों की टाँगे तोड़कर *शह्र’ के साथ कदमताल कराने वाला ग़ज़लकार अपने इस सुकृत्य से सम्भवतः अनभिज्ञ नहींA  तभी तो वह सीना तान यह बयान दे रहा है- *काफिये का होश है ना वज़न से है वास्ता’।
      ठीक इसी प्रकार का सुकर्म ग़ज़ल संख्या 26 में किया गया है जिसके काफिये *हवाओं’] *फजाओं’] *युवाओं’  से तालमेल बिठाने के चक्कर में ग़ज़लकार ने अन्तिम शे’र में *पाँवों’ को *पाओं’  में तब्दील कर अपनी नायाब सोच का परिचय दिया है। आगे वाली ग़ज़ल के काफिये में आने वाले स्वर के आधार को बीमार करते हुए *व्यथा’ की तुक *अन्यथा’ से ही नहीं *वृथा’ से भी मिलायी है।
      ग़ज़ल संख्या तेरह में जिस होशियारी के साथ *भारी’ शब्द की तुक *हुशियारी’ बनकर उभरी है। हिन्दी ग़ज़ल के पंडित इस नव प्रयोग पर काँव-काँव करते हुए कह सकते हैं कि यह मूल शब्द की तोड़-मरोड़ के लिए काफिये के रूप में किया गया प्रयोग उतना ही मौलिक है जितना कि ग़ज़लसंख्या पचास में *घबड़ाते’ की तुक *अजमाते’ बनकर प्रयुक्त हुई है। इस प्रयोग ने भी नयी ऊँचाई छुई है।
      ग़ज़ल संख्या बयालीस के मतले में *आसमानों’  की तुक *बेईमानों’ से मिलाकर हिन्दी ग़ज़लकार ने यह भी घोषणा कर दी है कि स्वर के बदलाव के आधार को मारकर भी अशुद्ध काफियों में शुद्ध मतला कहा जा सकता है। सहनशील बने रहने के लिए इस सुकर्म को भी सहा जा सकता है।
      हिन्दी में ग़ज़ल अब हिन्दी छन्द के आधार पर भी अपनी पहचान बनाने को व्याकुल है। इसलिए संग्रह में पृ. संख्या-56 पर एक कथित *दोहा ग़ज़ल’ भी विराजमान है। यह ग़ज़ल इसलिये महान है क्योंकि इसमें काफिये के अन्त में तीन बार *बीर’  तुक का प्रयोग हुआ है। सयुक्त रदीफ-काफिये की इस ग़ज़ल esa एक पहेली है] जिसे हल करते आप काफिये और रदीफ को खोजने के लिये घंटों  मगजमारी कर सकते हैं।
      एक ही कथित ग़ज़ल अगर 100 शे’रों की हो और उसमें स्वर के बदलाव का आधार *काफिया* बीमार नजर आयें तो बात समझ में आती है कि स्वरों के बदलाव का आधार दुहराव का शिकार होगा ही]  किन्तु 5]7]11 शे’रों की ग़ज़ल में यह खामी इस तथ्य को द्योतक है ग़ज़लकार शुद्ध तुकें ला सकता था किन्तु उसने ऐसा न कर बार-बार काफिये को रदीफ की तरह प्रयुक्त कर उसे न तो शुद्ध काफिया रहने दिया और न शुद्ध रदीफ। इस तकलीफ से ग्रस्त आज की हिन्दी ग़ज़ल फिर भी मदमस्त है] तो है।
      डॉ. ब्रह्मजीत गौतम के ग़ज़ल संग्रह *वक़्त के मंजर’  में ग़ज़ल के नाम पर जो कुछ भी परोसा गया है] वह भी इसमें आत्म स्वीकृति के रूप में मौजूद है-
      अपनी ग़ज़लों के लिये अपनी जुबानी क्या कहूँ  
         कैक्टस हैं ये सभी या रातरानी] क्या कहूँ।
      ग़ज़ल यदि रातरानी की तरह खुशबू बिखेरती विधा है तो यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि इस संग्रह की अधिकांश ग़ज़लों से यह खुशबू फरार है। सही बात तो यह है कि हिन्दी में ग़ज़ल के नाम पर एक कैक्टस का जंगल उगाया जा रहा है] जिसमें से बहर का ओज फरार है। काँटे की तरह कसते अशुद्ध रदीफ-काफियों की भरमार है। शे’र की स्वतंत्र सत्ता धूल चाट रही है।
      हिन्दी में आकर ग़ज़ल अपने खोये हुए शास्त्रीय सरोकारों को माँग रही है। हिन्दी ग़ज़ल के पुरोधा हैं कि चुम्बन में आक्रोश]  आलिंगन में क्रन्दन]  प्रणय में अग्निलय  के आशय भी जोड़कर ग़ज़ल को न तो एक प्रणयगीत रहने दे रहे हैं और न उसे सामाजिक सरोकारों से जोड़कर नयी पहचान देने को तैयार हैं। ऐसे विद्वानों को कौन समझाये कि कृष्ण जब रास रचाते हैं तो रसिक पुकारे जाते हैं किन्तु जब वे द्रौपदी की लाज बचाते है तो *दीनानाथ’  कहलाते हैं। चरित्र बदलते ही कैसे नाम भी बदल जाता है] इसकी पहचान शिक्षार्थी और शिक्षक] शासक और शासित] अहंकारी और विनम्र] स्वाभिमानी और चाटुकार के अन्तर को समझने वाले ही बतला सकते हैं। जिन विद्वानों की मति पर रूढ़िवादी चिन्तन के पत्थर रखे हुए हैं]  उन्हें ही तेवरी और ग़ज़ल की प्रथक पहचान करने में परेशानी होती है और सम्भवतः होती रहेगी।

तेवरी को विवादास्पद बनाने में जुटे हैं हिन्दीग़ज़ल के कथित विद्वान
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हिन्दी ग़ज़ल के जो विद्वान ग़ज़ल का उसके शास्त्रीय सरोकारों के साथ सृजन नहीं कर सकते]  ऐसे विद्वान ही तेवरी को विवादासाद बनाने में जी-जान से जुटे हुए हैं। दुर्भाग्य यह भी है कि इनमें सम्पादक भी शामिल हो गये हैं जो जानबूझ कर तेवरीकारों की प्रकाशनार्थ भेजी गयी कविताओं जैसे *हाइकु’ पर *हाइकु में तेवरी’] *ग़ज़ल’ पर *ग़ज़ल में तेवरी’,*चतुष्पदी शतक’ पर *चतुष्पदी शतक के अंश-तेवरियाँ’, ‘मुक्तक-संग्रह’  पर *मुक्तक-संग्रह के अंश- तेवरियाँ*] *तेवरी’ पर *ग़ज़ल में तेवरी’ का लेबल लगाकर तेवरी के मूल चरित्र *अनीति- विरोध* को ही नहीं] उसके शिल्प को भी संदिग्ध और विवादास्पद बनाने का प्रयास कर रहे हैं। द्विपदीय तेवरों को त्रिपदीय रूप में छापकर अपने इस सुकृत्य पर मगन हो रहे हैं।

तेवरी का प्रामाणिक प्रारूप-
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1&तेवरी न मुक्तक है] न हाइकु है] न दोहा है] न किसी छन्द विशेष का नाम है।
2&बिना विशिष्ट अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था के तेवरी न दोहे में लिखी जाती है] न हाइकु में] न जनक छन्द अथवा किसी अन्य छन्द में लिखी जाती है।
3. तेवरी के समस्त तेवर केवल और केवल द्विपदीय रूप में ही निश्चित तुक-विधान के साथ एक सम्पूर्ण तेवरी का निर्माण करते है   
4& तेवरी के तेवर किसी एक ही छन्द में हो सकते हैं]या दो छन्दों को लेकर भी उनका द्विपदीय रूप निर्धारित किया जा सकता है।   
5& तेवरी के प्रथम तेवर में एक अथवा दो छन्दों की जो व्यवस्था निर्धारित की जाती है] वह व्यवस्था ही हर तेवर में निहित होकर तेवरी को सम्पूर्णता प्रदान करती है।
6& तेवरी के तेवरों को लाँगुरिया] बारहमासी] मल्हार] रसिया] व्यंग्य] आदि शैलियों का समावेश कर रचा जा सकता है। इस शैलियों को विधा समझना ठीक उसी प्रकार है जैसे अतिज्ञानी लोग तेवरी को ग़ज़ल समझते हैं।
     हिन्दी ग़ज़ल के कथित पारखी विद्वानों का कहना है कि-“ तेवरी में पहले एक अतुकांत पंक्ति फिर उसी लय में दो-दो पंक्तियों के जोड़े जिनमें दूसरी पंक्ति का अन्त्यानुप्रास से मेल खाता हो]  स्थूल रूप से यह ग़ज़ल का रूपाकार है।“
इसी कारण तेवरी ग़ज़ल है।
      तेवरी को ग़ज़ल मानने का उपरोक्त आधार अगर सही है तो इसी आधार को लेकर कवित्त की रचना की जाती है। यही आधार पूरी तरह हज़ल में परिलक्षित होता है। तब यह विद्वान कवित्त और हज़ल को ग़ज़ल की श्रेणी में रखने से पूर्व लकवाग्रस्त क्यों हो जाते है? एक सही तथ्य को स्वीकारने में इनका गला क्यों सूख जाता है?
      हज़ल तो शिल्प के स्तर पर हू-ब-हू ग़ज़ल की नकल है। इस नकल को ग़ज़ल कहने की हिम्मत जुटाएँA  हिन्दी ग़ज़ल के पुरोधाओं की बात साहित्य जगत में स्वीकार ली जाये तो तेवरीकार उनके समक्ष नतमस्तक होकर तेवरी को ग़ज़ल मानने के लिये तैयार हो जाएँगे।
      हम मानते हैं कि तेवरी ग़ज़ल की हमशकल है किन्तु न वह ग़ज़ल की हमनवा है और न हमख्याल। शारीरिक संरचना में तो कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई और अंगे्रजों के छक्के छुड़ाने वाली रानी लक्ष्मीबाई समान ही ठहरेंगी। कंस और कृष्ण में भी यही समानता मिलेगी। हिटलर और गांधी में भी कोई अन्तर परिलक्षित नहीं होगा। तब क्या इन्ही शारीरिक समानताओं को आधार मानकर हर अन्तर मिटा देना चाहिए] जिसके आधार पर मनुष्य के चरित्र की विशिष्ट पहचान बनती है।

क्या हज़ल भी ग़ज़ल या हिन्दी ग़ज़ल है\
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      जिन विद्वानों के लिए शरीर और चरित्र एक ही चीज़ है]  वे तेवरी को ग़ज़ल ही सिद्ध करेंगे] लेकिन हज़ल को ग़ज़ल सिद्ध करते समय उनकी बुद्धि कुंठित क्यों हो जाती है? इस प्रश्न पर आकर उत्तर देने में उनकी जीभ क्यों लड़खड़ती है] अतः पुनः पूरे मलाल के साथ यही सवाल. कि ग़ज़ल की शक़ल की हू-ब-हू नकल *हज़ल’  है] क्या हज़ल भी ग़ज़ल या हिन्दी ग़ज़ल है\