Tuesday, April 12, 2016

तेवरी की सामाजिक पृष्ठभूमि +रमेशराज




तेवरी की सामाजिक पृष्ठभूमि  

+रमेशराज
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   यदि सामाजिक-परिवर्तन या घटनाक्रम को यथार्थवादी दृष्टिकोणों से जोड़कर मूल्यांकित किया जाये तो इतिहास के उस नेपथ्य की भी जानकारी होने लगती है, जहाँ जन-सेवी या समाजवादी व्यक्तित्व बदसूरत ही नहीं लगते, बल्कि एक ऐसे कुकृत्य में लिप्त पाये जाते हैं, जिसे जन-द्रोहिता कहा जाता है। इस संदर्भ में यदि हम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और उसके बाद के इतिहास के नेपथ्य का अवलोकन करें तो पायेंगे कि अराजकता, शोषण और अन्याय के विरुद्ध  आवाज उठाने वाले ही अनेक व्यक्तियों ने नेपथ्य से आम आदमी की पीठ में एक ऐसा छुरा घोंपा, जो दिखायी तो नहीं दिया किन्तु उसकी मार इतनी तीखी और विशाल थी कि उससे अप्रभावित हुए बिना कोई भी नहीं रह सका। शान्ति और अहिंसा के पुजारियों ने समूची मानवता की हिंसा की।
   कमाल तो यह है कि नेपथ्य के षड्यंत्रकारी जब मंच पर हावी हुए तो उन्होंने मंच से सही और ईमानदार नेतृत्वकर्ताओं को धक्का ही नहीं दिया बल्कि उन्हें एक ऐसी स्थिति में लाकर पटक दिया जहाँ से उनकी आवाज एक पागलपन समझी जाने लगी। ऐसी त्रासद स्थितियाँ हमारे उन क्रान्तिकारियों ने भोगीं जो सच्चे अर्थों में जनता के हितैषी थे। ऐसे लोगों को उग्रवादी करार देने वाले वही लोग थे जो अंग्रेजों और भारतीय पूँजीपतियों के बीच दलालों की भूमिका निभा रहे थे। उसी दलाली के फलस्वरूप भारत में स्वतन्त्रता आम वर्ग को न मिलकर एक ऐसे वर्ग को मिली जिसका उद्देश्य शान्ति और अहिंसा के थोथे नारों के बल पर सत्ता हथियाना ही नहीं बल्कि जन सामान्य के मुँह का दाना और तन का कपड़ा छीनकर चन्द लोगों की सुख-सुविधा  का साधन बनाना था। देश को एक ऐसी अराजक और भ्रष्ट अवस्था में ले जाना था, जिसमें खास वर्ग की तरह सामान्य वर्ग का भी इतना चारित्रिक पतन हो जाये कि कोई किसी पर अँगुली न उठा सके। चोर-चोर मौसेरे भाईकी परम्परा स्वतन्त्रता के बाद जन-सामान्य में इतनी फली-फूली कि शोषक और शोषित में अन्तर करना उतना ही मुश्किल हो गया है जितना कि इतिहास के नेपथ्य को समझना।
   भारतीय स्वतन्त्रता के बाद जिन नेताओं ने भारत का नेतृत्व सम्हाला, उन्होंने लोकतन्त्र का इस्तेमाल लोकहित में न करके, सत्ता और नौकरशाही प्रवृत्तियों के नरभझी पौधों  को पालने-पोसने में किया। परिणामस्वरूप समूची तंत्र-व्यवस्था शोषक, आदमखोर, अत्याचारी होती चली गयी।
   शासक वर्ग ने सत्ता-स्थायित्व, अहंतुष्टि और कोरी वाहवाही लूटने के लिये ऐसे हथकन्डे अपनाने शुरू किये जो आम जनता को असहाय, पीडि़त और दरिद्र बनाने के साथ-साथ चरित्रहीनता की ओर धकेलते चले गये। सुविधा  और विलासता की ललक के शिकार लोग अपनी स्वार्थ-पूति के लिये देश के साथ साम्प्रदायिकता, अलगाव, तस्करी, डकैती, बलात्कार, संगठित विद्रोह और भ्रष्टता की बेहूदी भूमिका निभाने लगे। उनकी इन करतूतों पर कोई उँगली न उठा सके, इसके लिये उन्होंने गांधीवाद का सहारा लिया। भारत के इतिहास में जिस तरह के व्यभिचार की जडे़ं धर्म  के नाम पर पनपीं, ठीक उसी तरह का व्यभिचार गांधी के नाम पर विकसित हुआ।
   शाषक वर्ग ने शिक्षा की उन्नति से धार्मिक अन्ध विश्वासों के पतन को देखते हुए जनता की मानसिकता को पुनः लुंज और गुमराह करने के लिये अपरोक्ष रूप से हिंसा और सेक्स प्रधान फिल्मों तथा घटिया उपन्यासों और अपराध् कथाओं को बढ़ावा इसलिये दिया ताकि आदमी सत्ता की करतूतों पर केन्द्रित होकर व्यवस्था परिवर्तन की माँग की रट लगाने के बजाय समाज के उन अंगों पर ही प्रहार करे जो उसके अपने हैं, क्योंकि शासक वर्ग को आजादी के बाद सबसे बड़ा खतरा जन-समर्थक पत्रकारिता और साहित्य से ही दिखाई दिया, जो गलत राजनीति की ओर संकेत-भर ही नहीं, बल्कि समाजवादी मान्यताओं को स्थापित करने के लिये एक संकल्प भी था, या है।
   जनसमर्थक साहित्य के समानान्तर अश्लील साहित्य को स्थापित करने की साजिश के परिणामस्वरूप सामाजिक मूल्य और लगाव में कमी ही नहीं आयी बल्कि सेक्स, हिंसा, बलात्कार, व्यभिचार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी होने लगी। समाज सोचके धरातल पर अपने स्वार्थों की अंधी दौड़ में एक दूसरे को टंगी मारकर आगे बढ़ने लगा। दूसरी तरफ सत्ता का अपराधीकरण इसलिये किया गया ताकि गुण्डा-संस्कृति के बल पर आतंक और भय फैलाकर सत्ता को सुरक्षित रखा जा सके। कुल मिलाकर आज हमारा देश इस स्थिति में आ पहुँचा है कि गुण्डा-संस्कृति के बीच न तो जनता सुरक्षित है और न कोई राजनेता।
   ऐसे में प्रस्तुत तेवरी संग्रह इतिहास घायल हैयदि शासक वर्ग के नेपथ्य को नंगा करने तथा समाजघाती तिलिस्मों को तोड़ने में थोड़ा बहुत भी सहायक होता है तो निस्संदेह यह हमारी उन मान्यताओं की सफलता रहेगी जो अन्ततः मानवीय मूल्यों से जुड़ती है।

[ इतिहास घायल हैतेवरी-संग्रह की भूमिका ]

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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630  

तेवरी की जननी ग़ज़ल + रमेशराज


                                                                       रमेशराज      
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तेवरी की जननी ग़ज़ल 

+रमेशराज

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  आदि काल से शोषक वर्ग आम आदमी को लूटता, आम की तरह चूसता रहा है और यह शोषण का सिलसिला आज तक जारी है। शोषक वर्ग ने अपने को सुरक्षित रखने, वर्ग
विस्तार करने, अपना प्रभुत्व स्थापित करने, सुविधाएँ ऐशोआराम भोगने, सत्ता छिनने के खतरे से बचने, बाजीगरों की तरह चालाकी के साथ जनता की जेबें कतरने, अपने गोदामों को सोने-चाँदी से भरने, आदमी को नपुंसक, नाकारा, भाग्यवादी बनाने तथा शोषण को स्थायित्व देने के लिये, आम आदमी के खिलाफ एक षड्यन्त्र रचा, जिसका नाम था कथित धर्म, जिसका नाम था कथित ईश्वर।
   इस षड्यन्त्र की नींव पड़ी वैदिक काल में और फिर धीरे-धीरे साम्राज्यवादी शक्तियाँ अपना प्रभुत्व जमाती चली गयीं। इस शक्तियों ने अपने को और ज्यादा शक्तिशाली बनाने के लिये कथित धर्मग्रन्थों का योजनाबद्ध तरीके से सृजन कराया और उसे जनता को अफीम की तरह चटा दिया, ताकि वह विचारलुंज, भाग्यवादी, अन्धविश्वासी होकर, हाथ पर हाथ रखकर सिर्फ अच्छे दिनों का इन्तजार करती रहे। पूर्वजन्म के पापों का प्रायाश्चित करती रहे। दूसरी तरफ राजा महलों में सुरासुन्दरी का स्वाद चखते रहें। जनता की खून-पसीने की कमाई खजाने में भरते रहें।
   सम्राटों, सामन्तों की काली करतूतों, जनविरोधी  नीतियों, अय्याशियों, साजिशों का पर्दापफाश न हो जाये, इसके लिये उन्होंने तत्कालीन कवियों को राजाश्रय देकर भाटों में तब्दील कर दिया, ताकि वे जनता के सामने सच्चाइयाँ न उगल कर सिर्फ ऐसे साहित्य का सृजन करें, जिससे साम्राज्यवादी शक्तियों को पुष्टिकरण मिले। कवियों की एक पूरी की पूरी जमात कुछ इसी तरह की साजिशों में संलग्न रही। जिसके परिणाम स्वरूप आम आदमी होगा वही राम रचि राखा’, ‘सबहिं नचावत राम गुंसाई’, ‘मेरे तो गिरिधर गोपालजैसे अन्धविश्वासों की अफीम लगातार चाटता चला गया। पूर्वजन्म के पाप की धारणाएँ, दैवीय मान्यताएँ शोषकों को शोषण के लिये खुली छूट देती चली गयीं।
   खैर.. यह बात थी उस समय के साहित्यकारों की। आधुनिक साहित्य की भी लगभग यह स्थिति रही है। कुछेक अपवादों को छोड़कर आज भी साहित्यकार सरकार की जीहूजुरी कर रहे हैं। इनाम पा रहे हैं। पुरस्कारों, उपाधियों  से अलंकृत हो रहे हैं, पाठ्य-पुस्तकों में स्थान पा रहे हैं और ऐसे साहित्य का सृजन कर रहे हैं, जो जनघातक ही नहीं, जनहिंसक भी है।
   जब भी साहित्य सामाजिक संदर्भों, हितों से हटकर या कटकर लिखा जाता है, वह अधिकांशतः सामाजिक अहित ही नहीं करता, सत्ताधारियों, जनविरोधियों की काली करतूतों पर पर्दा भी डालता है। आज की तथाकथित महान कविता के प्रवृत्तकों में चाहे छायावादी युगीन कवि हों या प्रतीकात्मक नयी कविता के जनक, सब के सब सत्ता की थैली के चट्टे-बट्टे रहे हैं, जिन्होंने साफगोई के खतरे न उठाकर सिर्फ पदक बटोरे, जमूरों वाली शैली अपनाकर सत्ता के बाजीगरों की जीहुजूरी की।
   ऐसे साहित्य के साथ-साथ हर युग में एक ऐसे साहित्य का भी सृजन हुआ जो जनहितकारी था। कुसत्ताद्रोही था, जिसमें अभिव्यक्ति के खतरे उठाये गये थे। कबीर’, महाप्राण निराला’, धूमिल’, दिनकर, ‘नागार्जुनआदि-आदि कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने जनविरोधी शक्तियों के खिलाफ कान्ति की एक अमर मशाल जलाई। उसी मशाल को लेकर हम भी तेवरीके माध्यम से शोषक, जनद्रोही प्रवृत्तियों के खिलाफ एक आन्दोलन, एक जनक्रान्ति, एक संघर्ष की शुरूआत कर रहे हैं। शोषित, सर्वहारा वर्ग के भीतर छुपी हुई विद्रोह की आग को तलाश रहे हैं। आदमी को आदमखोरों के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं।
   इस भूमिका को पढ़ते-पढ़ते पाठक मन पर एक प्रश्न उभरना स्वाभाविक है-‘ आखिर ये तेवरीहै क्या’? इसे समझाने के लिये हम अपनी बात ग़ज़ल से शुरू कर रहे हैं। ग़ज़ल का अर्थ है- ‘प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत। सामान्ती युग में राजा-महाराजाओं को खुश करने के लिये उर्दू शायर ग़ज़लों में औरत के जिस्म की खूबियाँ बखान कर राजमहलों में महफिलों की रौनक बढ़ाया करते थे, अशर्फियाँ बटोरा करते थे। कुल मिलाकर ग़ज़ल एय्याशों के लिए एक मनोरन्जन का साधन थी। साथ ही शायरों की रोजी-रोटी, धन-दौलत लूटने की एक चाटुकारी प्रवृत्ति। कहने का मतलब यह है, इसका आम आदमी की समस्याओं, सामाजिक यथार्थ या जनहित से कोई वास्ता नहीं था। इसी कारण यह विधा नंगी जाँघों के जंगल में भटक कर रह गई, जिसमें सुर्ख गालों पर चुटकियाँ थी। मख्मूर आँखों की मदिरा थी, बाँहों के झूले थे, शोखी थी, नजाकत थी। कुल मिलाकर आदमी को पथभ्रष्ट करने का पूरा साजो-सामान थी ग़ज़ल।
   लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अंग्रेजों के भारतीयों पर अत्याचारों, दमन, शोषण, कुशासन ने ग़ज़ल के तेवर बदलने शुरू कर दिये और यही से हुआ तेवरीका जन्म, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ, एक संघर्ष, एक इन्कलाब, एक व्रिदोह, एक जनचेतना की शुरुआत की। क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिलकी कथित ग़ज़लें कुछ इसी प्रकार की थीं, जिनसे तेवरीपन की एक बारूदी बू आती है-
सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजू--कातिल में है।।
   इसके बाद तेवरी अनेक हाथों में पलकर बड़ी होती गई। स्व. दुष्यन्त कुमार ने तो आपातकाल में तेवरी के सीने में तिलमिलाते विद्रोह के ज्वालामुखी भर दिये। उसके हाथों में शब्दों के डाइनामाइट थमा दिये।
   तेवरी जन्म के बाद लगातार जवान तो होती गई, लेकिन हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य यह रहा कि इसके नामकरण की आवश्यकता किसी भी कवि ने नहीं महसूसी। पाँच-छह दशक गुमनामी की जीवन जीते-जीते नवें दशक में इसका नामकरण हुआ तेवरी। इस सदर्भ में डॉ. देवराज एवं डॉ. ऋभदेव शर्मा देवराजका नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय माना जा सकता है।
   यह सत्य है कि तेवरी की जननी ग़ज़ल है और इसी कारण इसके बहुत से गुण जैसे छन्द, शिल्प आदि बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। लेकिन यदि सन्तान को भी माँ के नाम से पुकारा जाये, यह कहाँ तक उचित है? या हम अपनी बात यूँ स्पष्ट करें, यदि एक विषभरी शीशी को खाली करके उसमें अमृत भर दिया जाये, मगर उसके ऊपर से विष का लेबल न छुड़ाया जाये, ऐसे में क्या लोग इस अमृत को अमृत का मानसिकता के साथ गले उतार सकेंगे? क्या उन्हें अमृत भी जहर नहीं दिखाई देगा? उत्तर स्पष्ट है-‘हां। कुछ इसी तरह की दुर्गति ग़ज़ल के साथ जुड़ी हुई है। इसी कारण ग़ज़ल और तेवरी की स्पष्ट व अलग-अलग पहचान कराना नितान्त आवश्यक हो गया है।
   तेवरी जिस जमीन पर पैदा हुयी, खड़ी हुयी, बड़ी हुयी-वह खुरदरी, पथरीली, कँटीली, विषमताओं, संत्रास, शोषण, घुटन, कुंठाओं की त्रासद पगडंडियों से भरी हुयी है, जहाँ पक्षियों का शोर सुनायी नहीं देता, नदियाँ कल-कल नहीं करतीं। फूल नहीं खिलते। वसन्त नहीं आता | बल्कि आदमी को खाकी बर्दियाँ बूटों से कुचलती हैं, टोपियाँ माँ-बहिनों की इज्जत पर डाके डालती हैं। बन्दूकें आग उगलती हैं। मजदूर का शोषण होता है। शोषक तोदें फुलाते हैं। मूछों पर ताव देते हैं। सुविधा के नाम पर आदमी की आँतों में भूख की आरी चलती है। तस्करी, राहजनी, लूटा-खसोटी होती है। पर सत्ता के कान पर ऐसी खबरों की जूँ तक नहीं रेंगती। बल्कि विधायक, सांसद स्वयं डकैतों, भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देते हैं। वसंत के नाम पर झूठे वादों की नागफनी के जंगल में भरमाते हैं। खुशबू के नाम पर सडाँध दे जाते हैं।
   तेवरी इस जमीन पर खड़ी होकर आदमी के खिलाफ हो रही साजिशों से आँखें नहीं मूँदती। यातनाओं, अत्याचारों, त्रासदियों, हादसों से भरे रास्तों से कतरा कर नहीं चलती। बल्कि वह जंगलों को काटती-छाँटती हुयी आगे बढ़ती है। शोषक प्रवृत्तियों के खिलाफ जनचेतना लाती है। संघर्ष की बात कहती है। देखा जाये तो तेवरी आदमी की जि़न्दगी में घुली तल्खियत का एक ऐसा ब्यौरा है, जो पढ़ने या सुनने के बाद विचार और चिंतन के ऐसे बिन्दु पर ले जाता है, जहाँ से साजिशियों के खिलाफ आक्रोश की कुल्हाडि़याँ उछालना आवश्यक हो जाता है।
   जबकि ग़ज़ल आरम्भ से लेकर अब तक मात्र एय्यायाशों, सामन्तों को खुश या पुष्ट करती रही है। अपना खूबसूरत जिस्म दिखाकर रिझाती रही है। काँच की हवेलियों में पायल खनकाती रही है। उसने कभी भी फुटपाथ पर झौंपड़ी की जि़न्दगी की तरफ झाँककर नहीं देखा और अगर वहाँ आयी भी है तो नंगी जाँघों का भूगोल पढ़ा गयी है। यही वजह है, तेवरी अपनी माँ ग़ज़ल से व्यवहार से लेकर चालचलन तक एक दम भिन्न है। उसके एक-एक शब्द में चाकू जैसी मार है। अन्धविश्वासों, सामाजिक विसंगतियों, विकृतियों, रूढि़यों, कुआस्था, गन्दी राजनीतिक चालों के खिलाफ आक्रोश है, विद्रोह है, आक्रामकता है, बारुद जैसा विस्पफोटक है, ब्लैड जैसी धार है, जो तन मन को आन्दोलित करती चली जाती है।
   तेवरी गुस्सैल, आक्रामक, जुझारू, संघर्षशील अवश्य है, लेकिन वह अनुशासनप्रिय है और ऐसा कोई रास्ता अख्तियार नहीं करती, जो गलत हो, भ्रामक हो, विध्वंसक हो। तेवरी व्यर्थ का रक्तपात भी नहीं चाहती है। वह आदमी के लिये सुख-सुविधा माँगती है। जर्द चेहरों की खुशहाली चाहती है, भूखे को रोटी की माँग करती है, ठन्डाये चूल्हे को आग, दाल-भात माँगती है। लेकिन इसके लिये सरकारी सम्पत्ति का विनाश नहीं करवाना चाहती, बसें नहीं तुड़वाना चाहती। तेवरी लड़ाई तो लड़ती है, क्रान्ति तो करती है लेकिन हक की, शांति की, अहिंसा की। वह गुस्से को सार्थक सृजन में लगाती है, आदमी को आदमी बनाती है।
   आज जबकि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक भयंकर उथल-पुथल शुरू हो गयी है। शोषक और शोषित का एक तीखा वर्गसंघर्ष संक्रामक रोग की तरह पनप रहा है, स्थापितों और विस्थापितों के राजनीतिक हथकंडे आदमी को एक तल्खियत से सराबोर कर रहे हैं। आदमी कुंठा, घुटन, संत्रास उत्पीड़न से पनपे आक्रोश को अपने भीतर कोढ़-सा महसूस रहा है। एक सडाँधभरी व्यवस्था में हम सब जिये चले जा रहे हैं। एक दिशाहीनता हम सब पर हावी होती चली जा रही है। नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक मूल्य टूट रहे हैं। आदमी को पूर्वजों से विरासत में मिले धार्मिक अंधविश्वास धर्म के ठेकेदारों के लिये शोषण, तस्करी, लूटाखसोटी के साधन बने हुये हैं। ईश्वर के नाम पर चकले चल रहे हैं। भ्रष्टाचार हो रहा है। शासक जनद्रोही हो गये हैं। समाजवाद की अच्छीखासी घोषणाओं के बावजूद आज़ादी के इन विगत सालों में समाजवाद न आ सका, जन खुशहाली न आ सकी। आजादी का अर्थ सिर्फ नौकरशाहों, भ्रष्टाचारियों, नेताओं के टुच्चे भाषण देने, जनता का पैसा डकारने, जनविरोधी विधेयक लाने, साम्प्रदायिक दंगे भड़काने, पुलिस द्वारा महिलाओं की इज्जत लूटने-लुटवाने, लाठीचार्ज कराने, तस्करी करने, गरीबी उन्मूलन के नारे देकर पूंजीवाद को बढ़ावा देने, कालाधन कमाने और कमवाने की आज़ादी बनकर रह गया, जिससे न सिर्फ सामाजिक मूल्य टूटे हैं, बल्कि वीभत्स-घिनौने होते चले गये। स्वार्थों के कुंड में स्वाहा होते चले गये। आदमी, आदमी न रहकर शैतान बन गया। ऐसे में प्रस्तुत संग्रह अभी जुबां कटी नहींके तेवरीकारों की तेवरियाँ जनविरोधी प्रवृत्तियों को बेनकाब ही नहीं करेंगी, उन्हें चौराहे पर घसीट कर उनकी असलियत भी खोलेंगी, साथ ही पाठकवर्ग को उनकी त्रासद स्थितियों से साक्षात्कार कराते हुये किसी हल की ओर मोड़ेंगी, ऐसा विश्वास है।

[ तेवरी-संग्रह अभी जुबां कटी नहींकी भूमिका ]

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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630  

तेवरी : शोषणविहीन समाज का संकल्प +रमेशराज



                 रमेशराज


तेवरी : शोषणविहीन समाज का संकल्प 


+रमेशराज
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   इतिहास गवाह है कविता का जब भी शोषक, जनविरोधी  शक्तियों के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल हुआ है, भाषा में बारूद भरी गयी है तो उससे आदमखोरों के भीतर गुर्राता हुआ भेडि़यापन शब्दों की गोलियों से छलनी होकर सरे-आम दम तोड़ने लगा है।
   इतिहास गवाह है, कविता जब-जब भी सामाजिक यथार्थ से कतराकर चली है, ईश्वर और मोक्ष के छद्मता से भरे रास्तों पर अध्यात्म के जंगल में भटकी है या एक अजीब स्वप्नलोक में विचरी है, तब-तब आम जनता की गर्दन पर पूँजीवादी ढाँचे के शोषण की तलवारें भरभरा कर टूटी हैं।
   इतिहास गवाह है, कथित भारतीय स्वतन्त्रता के विगत वर्षों में पूँजीवादी शोषक व्यवस्था ने जिस तरह अपनी जड़ें जमायी हैं, गलत और भ्रष्ट मूल्यों ने आदमी के चरित्र में जिस तरह घुसपैंठ की है, धर्म, सुधार, योजना-परियोजना के नाम पर जिस तरह साजिशियों ने एक धोखे-भरा खेल खेला है, सत्ताधारी बहेलियों ने आपातकाल के दौरान जिस तरह अनुशासन, देशहित के कार्यक्रम के सब्जबाग दिखाकर जनतन्त्र की हत्या की है, उस कटुयार्थ को कविता ने देखा ही नहीं, भोगा ही नहीं, अपने सीने पर तलवार की तरह झेला भी है। यही कारण है कि स्वतन्त्रता के बाद कविता जझारू, संघर्षशील, आक्रामक होती चली गयी। उसमें एक ऐसी वैचारिक उग्रता भर गयी है, जिसमें इस कुव्यवस्था के खिलाफ कुछ कर गुजरने की ललक है।
   तेवरी समकालीन कविता का एक ऐसा ही काव्य-रूप है, जिसके एक-एक तेवर में शोषितवर्ग की पूँजीवादी, सत्ताधारी वर्ग के खिलाफ सक्रिय मोर्चेबन्दी है।
   तेवरी ने समकालीन व्यवस्था से संत्रस्त पात्रों की क्षोभातुर भावनाओं को रोमांसवादी तरीकों से बहलाकर शांत करने की कोशिश नहीं की, बल्कि उन्हें आक्रोश, एक आंदोलन, एक संघर्ष की मुद्रा में बदलने का प्रयास किया है।
   तेवरी भयंकर हताशा के घटाटोप अंधेरे के बीच मजदूर के हाथ में लगी हुई लालटेन की तरह हमारे बीच आयी है, जिससे सही मार्ग की ओर कदम बढ़ सकें।
   तेवरी मखमली गद्दों, आलीशान कोठियों से ऊब रही कविता को एक ऐसी बस्ती में ले आयी है, जहाँ कड़वे अनुभवों के इर्दगिर्द जीने की विवशता है। चेहरे की हँसी के पीछे दुःखद अर्थों की भरमार है।
   तेवरी भूख, गरीबी, दमन, अन्याय के प्रति चुप्पी साधे  हुए लोगों को उनके अधिकारों की खातिर लड़ाई लड़े जाने के लिए पुकारती ही नहीं, उन्हें एक ऐसे सोच के धरातल पर भी एकत्रित करती है, जहाँ आदमखोरों के चेहरे से आदर्शवादिता, जनसेवा, मानवता के घिनौने नकाब प्याज के छिलकों की तरह उचलने लगते हैं।
   तेवरी पूँजीवादी व्यवस्था के पिंजरे में कैद शोषित वर्ग के सपनों को मुक्त कराने के लिये शब्दों का आरी की तरह इस्तेमाल करती है ताकि आम आदमी शोषण-मुक्त आकाश के तले चैन की साँस ले सके।
   तेवरी अत्याचारियों को घेरे हुए भीड़ के बीच गुस्से से तनी हुई एक ऐसी मुट्ठी है जिसके भीतर यातना व अन्यायमुक्त समाज के सुखद संकेतों की शुरुआत है।
   तेवरी खोखली और बुर्जुआ मानसिकता की किलेबन्दी तोड़ने के लिये जूझती है, थकती है, टूटती है, लेकिन लगातार प्रहार करती है।
   तेवरी धर्म की अफीम में धुत पड़े हुए समाज की लुंज आत्मा में साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा थोपे गये अन्ध विश्वासों को जड़ से उखाड़ कर फैंक देने के लिये हल की तरह भीतर तक धंसती है और यथार्थ की जमीन को उर्वरा बनाकर उसमें सही मूल्यों, संस्कारों, संस्कृति के बीज बोती है।
   तेवरी गालिब, मजाज, दाग, मीर आदि की ग़ज़लों की तरह अपने आस-पास के परिवेश से अनभिज्ञ कलात्मक सुरुचियों की पहचान नहीं बनाती। वह तो कबीर की कविता की तरह आम आदमी के घर-घर यात्रा करती है। उसके दुःख-दर्द में सहभोगा बनती है। हर स्तर पर पराजय का मुँह देखने वाली जनता को संघर्ष लड़ाई और क्रान्ति के लिये प्रेरित करती है। तेवरी संग्रह ‘‘कबीर जि़दा हैकी तेवरियां कुछ इसी प्रकार की हैं।
[ कबीर जि़ंदा हैतेवरी-संग्रह की भूमिका ]
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630  

Monday, April 11, 2016

डॉ. मधुर नज़्मी की तेवरीकार रमेशराज से अनौपचारिक बातचीत

             तेवरीकार रमेशराज        
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तेवरी जन-जन की उस भाषा की अभिव्यक्ति है
जो सारे भारतीयों की ज़ुबान है +रमेशराज

[ प्रमुख तेवरीकार रमेशराज से प्रसिद्ध ग़ज़लकार मधुर नज़्मी की अनौपचारिक बातचीत ]

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रमेशराज, वैचारिक जमीन पर पोख्ता, ‘तेवरीपक्षके तेजस्वी संपादक, लघुकथाकार, कथाकार, गीतकार, प्रमुख तेवरीकार, बेवाक वाग्मिता, स्पष्टवादिता, पत्र-पत्रिकाओं के साहित्यिक केनवस पर छाया हुआ एक सारस्वत नाम है। रमेशराज से साहित्यिक विषयों से लगायत राजनीतिक मुद्दों पर बातें करना, विषय की घुमावदार गहराई से गुजरना है। रमेशराज साहित्यिक मानसून का नाम होने की स्थिति में अपनी पारिवेशिक सांघातिक पारिस्थितिकीसे फिलहाल जूझ रहा है किन्तु उसका अक्षर-अवदान साहित्य के शिवाले में स्वागतेय है। एक ही रचनाकार में इतनी सारी घनीभूत खूबियों की समन्वित-संदर्भित साक्षात्कार का दस्तावेजी परिणाम है। रमेशराज से मेरी मुलाकात अलीगढ़ धर्म समाज कॉलिज में पहले-पहले, कवि कथाकार समीक्षक डॉ. वेद प्रकाश अमिताभद्वारा आयोजित कवि-गोष्ठी में हुई। फिर साक्षात्कारी प्रक्रिया समारोहोपरांत पूर्ण हो सकी। मेरे प्रश्न सहित उनके उत्तर टेपांकित होकर, संक्षिप्त रूप में, रसज्ञ पाठकों की वैचारिक अदालत में बगैर किंचित परिवर्तन के ज्यों के त्यों प्रस्तुत हैं-

+मधुर नज़्मी
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मधुर नज़्मी-आप तेवरी विधा के जाने-माने हस्ताक्षर हैं। क्या आप बतलायेंगे कि तेवरी आंदोलनकी शुरुआत कब और किसने की?

रमेशराज- तेवरी आंदोलन की शुरुआत आठवें दशक के अन्त, नवें दशक के प्रारम्भ में हुई। इस विधा को तेवरीनाम से अभिभूषित करने का श्रेय श्री ऋभ देव शर्मा देवराज और डॉ. देवराज को जाता है।

मधुर नज़्मी - आप तेवरी के विधागत स्वरूप को किस प्रकार स्पष्ट करेंगे?

रमेशराज-किसी भी विधा का संबंध उस विधान से होता है जिसके अन्तर्गत किसी भी प्रकार का चरित्र प्रस्तुत किया जाता है। विधाओं का निर्माण [ खासतौर पर कविता के संदर्भ में ] दो प्रकार से होता है। एक, वे विधाएँ जो छंद के आधार पर विकसित-निर्मित होती हैं- जैसे दोहा, चौपाई आदि। दूसरे प्रकार की विधाएँ कथ्य के आधार पर वर्गीकृत की जा सकती हैं- जैसे भजन, कलमा, मर्सिया, कसीदा आदि। जहाँ तक तेवरी के विधागत स्वरूप की बात है तो यह विधा कथ्य के आधार पर संज्ञापित की गई है। तेवरी के अंतर्गत उस तेवर [ चरित्र या भावभंगिमा ] को रखा गया है जो कुव्यवस्था के शिकार, लोक या मानव को [ शोषण, पीड़ा, यातना आदि के कारण ] असंतोष, आक्रोश, विरोध, विद्रोह आदि से सिक्त करता है।

मधुर नज़्मी- इसका अर्थ यह हुआ कि तेवरी में शृंगार-वर्णन वर्जित है। इस सदंर्भ में इसे जनवादी’, ‘प्रगतिवादीमान्यताओं के अधिक निकट रखा जा सकता है। तब इसे [ तेवरी ] विधा के स्थान पर क्या नया काव्यवाद नहीं कहा जा सकता है?

रमेशराज- तेवरी कथित शृंगार की जरूर विरोधी है, क्योंकि इससे इस विधा पर व्यक्तिवाद के खतरे मँडलाने लगेंगे। मानव मूल्यों के खण्डित होने की संभावनाएँ बढ़ जायेंगी। लेकिन तेवरी में प्रेम या रति के औचित्य, सात्विकता का कहीं विरोध नहीं। दरअसल, तेवरी स्त्री या पुरुष को आगे के विकास की वस्तु मानकर नहीं चलती। इसके रिश्तों की सार्थकता, उस प्रेम-तत्त्व के भीतर देखी जा सकती है जो एक दूसरे के संघर्ष, सुख-दुःख के दायित्वबोध, साझेदारी और कर्त्तव्यों से जोड़ता है। इस संदर्भ में तेवरी जनवाद, प्रगतिवाद, मानवतावाद, साम्यवाद, यथार्थवाद जैसे किसी भी वाद से बँधकर चलने वाली विधा नहीं है। यह तो हमारे सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों की एक ऐसी रागात्मक प्रस्तुति है जिसके माध्यम से सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना की जा सकती है और अप-संस्कृति का वैचारिक विरोध। इसलिए तेवरी एक ऐसी प्रगतिशील विधा है जिसकी दृष्टि यथार्थोन्मुखी होने के साथ-साथ सत्योन्मुखी भी है।

मधुर नज़्मी शिल्प के आधार पर तेवरी और ग़ज़ल का स्वरूप एक ही जान पड़ता है, तब इसे तेवरी कहने का औचित्य क्या है?

रमेशराज- बड़ा ही महत्वपूर्ण सवाल उठाया है आपने। सतही तौर पर देखने से ऐसा जरूर लगता है कि तेवरी और ग़ज़ल का शिल्प एक जैसा है लेकिन यदि हम सूक्ष्मता के साथ विवेचन करें तो तेवरी और ग़ज़ल के शिल्प में मूलभूत अन्तर है। तेवरी मात्रिक व वर्णिक छन्दों में लिखी जाती है जबकि ग़ज़ल कुछ निश्चित बह्रों में कही जाती है। तेवरी में मतला, मक्ता, शेरों की निश्चित व्यवस्था जैसा प्रावधान नहीं होता। कुछ लोगों को इसकी अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था ग़ज़ल के रदीफ-काफियों जैसी व्यवस्था की नकल जान पड़ती है। ऐसे लोगों से विनम्रतापूर्वक बस यही निवेदन है कि इस प्रकार की व्यवस्था आदिकालीन कवि चन्द्रवरदायी से प्रारम्भ होती है और इस तरह की परम्परा का निर्वाह सूर, तुलसी, कबीर से लेकर घनानन्द, विद्यापति, केशव, देव, ठाकुर, रत्नाकर आदि के काव्य में बखूबी मिलती है। तेवरी चूँकि हिन्दी की काव्य विधा है, इस कारण इसकी अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था में प्रस्तुत कथनभंगिमा किसी हद तक कथात्मक है जबकि ग़ज़ल में कथात्मकता शुरू से ही वर्जित है।

मधुर नज़्मी- तो इसका अर्थ यह हुआ कि तेवरी उर्दू विरोधी हिन्दी भाषा की विधा है?

रमेशराज-अरे! यह क्या कह रहे हैं आपतेवरी में हिन्दी-उर्दू जैसा कोई विवाद नहीं। तेवरी तो जन-जन की उस भाषा की अभिव्यक्ति है जो मुसलमानों, हिन्दुओं, पंजाबियों से लेकर हम समूचे हिन्दुस्तानियों की जुबान है।

मधुर नज़्मी- आज तेवरीकार जिस प्रकार का कथ्य तेवरी में दे रहे हैं, इस प्रकार का कथ्य तो साहिर’, ‘फिराक’, ‘फैज अहमद फैज’, दुष्यन्त कुमार आदि प्रगतिशील शायरों, कवियों की ग़ज़लों में भी मौजूद है लेकिन उन्होंने  इस तरह की रचनाओं को कभी तेवरीनहीं कहा ?

रमेशराज-नज्मीजी, ‘ग़ज़लका कोषगत अर्थ प्रेमिका से प्रेमपूर्वक बातचीतहै। यह शृंगाररस की ऐसी विधा है जिसमें नारी को भोग-विलास की वस्तु मानकर कभी साकी के रूप में प्रस्तुत किया गया है तो कभी रक्कासा [ नर्तकी ] के रूप में। यदि साहिर, फैज जैसे प्रगतिशील शायरों ने नारी को इन भाव-भंगिमाओं से काटकर उसे एक आदर्श पत्नी, समाज-सेविका, वीरांगना आदि के रूप में प्रस्तुत किया किन्तु एक पत्नी और एक रखैलया रक्कासामें अन्तर न कर सके तो इसके लिए किसे दोषी माना जाये? इसका उत्तर आप आप भी भली-भाँति जानते होंगे।

मधुर नज़्मी- तो क्या आपकी दृष्टि में ग़ज़ल के इस बदले हुए स्वरूप को लेकर दिये गये नाम जैसे गीतिका’, ‘अनुगीत’, ‘अवामी ग़ज़ल’, ‘हिन्दी-ग़ज़लआदि में भी कोई सार्थकता अन्तर्निहित नहीं है?

रमेशराज-ग़ज़ल यदि अपने स्वरूप से कट जायेगी तो उसमें कितनी ग़ज़लियत रह जायेगी, जिसके कारण हम उसे ग़ज़ल कह सकें? यदि भजन से ईश्वर या आलौकिक शक्ति के प्रति की गई विनती काट दी जाये तो वह कितना भजनरह जायेगा? यह विचारणीय विषय है। अतः मेरी दृष्टि में ग़ज़ल के पूर्व लगाये अवामी’, ‘हिन्दीजैसे विशेषण निरर्थक ही हैं। साथ ही विशेषणों को लगने से ग़ज़लशब्द की मर्यादा मरती है। वह हास्यास्पद और अवैज्ञानिक हो जाती है। जब उर्दू,  हिन्दी की एक बोलीमात्र ही है तो ग़ज़ल को हिन्दीग़ज़ल कहना कितना तर्कसंगत है। ठीक इसी प्रकार ग़ज़ल के साथ अवामीविशेषण जोड़ना, प्रेम के व्यक्तिवादी चरित्र को अवाम के बीच संक्रामक रोग की तरह फैलाना है। इस विशेषण से कथ्य की जनसापेक्षता किसी भी स्तर पर परिलक्षित नहीं होती। गीतिकाएक छंद है। आदरणीय नीरजजी छंद की बात कर रहे हैं या इसके माध्यम से किसी विशेष प्रकार के चरित्र की। यह आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है। यही बात अनुगीतके प्रति भी लागू होती है। मेरी राय में ग़ज़ल को सिर्फ ग़ज़ल रहने दिया जाये तो अनुचित नहीं होगा।

मधुर नज़्मी- यदि मान लिया जाय कि तेवरीआक्रोश-विरोध-विद्रोह से युक्त तेवर से नामित है, यह तेवर तो हमें उपन्यास, कहानी, लघुकथा, कविता के अन्य विधाओं में भी दिखाई देता है, तब हम उन्हें तेवरी क्यों न कहें?

रमेशराज-तेवरी एक निश्चित अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था से युक्त एक ऐसी काव्य विधा है जिसमें सत्योन्मुखी संवेदनशीलता अन्तर्निहित है। तेवरी की संदर्भित व्यवस्था को दृष्टिगत न रखते हुए, यदि आप उसकी घुसपैंठ उपन्यास, कहानी आदि साहित्य विधाओं में करना चाहेंगे, तब मैं आपके प्रश्न के प्रति आपसे भी एक प्रश्न करना चाहूँगा-यदि ग़ज़ल का अर्थ प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत है तो क्या समस्त  शृंगारिक काव्य को ग़ज़ल में रखा जा सकता है?

मधुर नज़्मी- एक आखिरी सवाल और-कहीं तेवरी-आंदोलन भी अ-कविता, अगीत, -ग़ज़ल, आवामी ग़ज़ल, सहज कविता आदि की तरह लोप तो नहीं हो जायेगा? आपकी दृष्टि में तेवरी का भविष्य क्या है?

रमेशराज-नज़्मीजी हमारी दृष्टि फिलहाल तो तेवरी के प्रति संघर्ष पर टिकी है, परिणाम पर नहीं। तेवरी का भविष्य क्या रहेगा, यह तो आगामी समय ही बतला सकेगा।
        
         [श्री हरिऔध् कला भवन, आजमगढ़ ]
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630  

ग़ज़ल की नक़ल नहीं है तेवरी + रमेशराज



                 रमेशराज 
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ग़ज़ल की नक़ल नहीं है तेवरी

+ रमेशराज
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   तेवरी एक निश्चित अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था से बँधी  एक ऐसी विधा है जिसमें सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना का आलोक है।
   तेवरी क्या है, इसे समझाने का प्रयास करते हैं- 
‘‘तेवरी गरीब की कमीज़ की सींता हुआ धागा और सुई है
तेवरी गरीब की जवान होती हुई ऐसी बिटिया है, जिस पर दानवों की पैशाचिक दृष्टि पड़ती है।
तेवरी बेटी के लिए दहेज न जुटा पाने वाले बाप की करुण-गाथा है।
तेवरी वसंत के उन्मादक रूप को नहीं निहारती, उस पर टिकी आशाओं को साकार रूप देती है।
तेवरी शान्त जल के ऊपर विहार करते हंसों का सौन्दर्य-बोध नहीं, बहेलिए के तीर से घायल हंस की आँखों की वेदना है।
तेवरी साकी के हाथ में लगा हुआ प्याला नहीं, शोषित, बलत्कृत नारी का आक्रोशमय बयान है।
तेवरी किसी शराबी के अंग-संचालन, परिचालन पर केन्द्रित चिन्तन नहीं, यह अपना सारा ध्यान उसकी विकृतियों पर केन्द्रित करती है।
तेवरी शमा और परवाने की दास्तान नहीं, गाँव और शहर के निर्धन, असहाय काका की झुर्रियों का इतिहास है।
तेवरी गुलाबी होठों का रसपान नहीं, दवा के अभाव में दम तोड़ते खुश्क होठों को भान है।
तेवरी आगे बढ़ती हुई सेना के जोश का बयान नहीं, धरती की सूनी होती हुई गोद का क्रन्दन है।
तेवरी अत्याचारी के खंज़र से टपकती हुई एक-एक खून की बूंद का हिसाब माँगती है।’’
[ तेवरीपक्ष-3, अरुण लहरी, पृ. 28 ]
   तेवरी को स्पष्ट करने के लिए तेवरी के संदर्भ में, तेवरीपक्ष के प्रवेशांक में ही स्पष्ट घोषणा की गयी कि कथित ग़ज़ल के शास्त्रीय और तकनीकी स्वरूप में जो रचनाएँ प्रेमिका के प्रणय-रूप, भोगवादी चरित्र या रोमानी संस्कारों को व्यक्त करने के बजाय घिनौनी व्यवस्था के प्रति आक्रामकता को ग्रहण किए हुए हैं, जिनमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विसंगतियों के बीच, मानव-मन में घुटन, सिसकन, सुबकन या क्रन्दन है, ऐसी रचनाएँ ग़ज़लें नहीं, तेवरी मानी जानी चाहिए, क्योंकि इनमें ग़ज़ल के मूल चरित्र के विपरीत आमूल परिवर्तन है। कथ्य के इसी परिवर्तन को दृष्टि में रखते हुए हमने जोर देकर कहा कि साहिर, फैज, कैफी या दुष्यन्त की कथित ग़ज़लें, ग़ज़लें नहीं, तेवरी हैं, क्योंकि इनके तेवर समकालीन व्यवस्था के प्रति असंतोष, विरोध, आक्रोश और विद्रोह से अभिसिक्त हैं।ग़ज़ल की कथित तकनीकी व्यवस्था के बावजूद, जिस प्रकार ग़ज़ल से कथ्य के आधार पर हज्ल को अलग किया गया, तेवरी भी अब उसी जायज माँग को दुहरा रही है।
   ग़ज़ल-फोबिया के शिकार रचनाकारों ने हमारे इस प्रयास की आलोचना-सराहना कम, निन्दा ज्यादा की। उन्होंने एक सही बात को तर्क से कम, कुतर्क और दुराग्रह-भरे चिन्तन से काटने की अधिक कोशिश की। ग़ज़ल और हज्ल की सार्थकता को जानते, स्वीकारते, मानते हुए भी वे कटूक्तियों के हथियार लेकर तेवरी के समर्थकों पर हमला बोलने लगे। रमेश श्रीवास्तव ने कहा-‘‘ क्या यह तेवर कहानी, उपन्यास आदि में नहीं हैं, इस आधार पर तेवरी को ग़ज़ल से अलग कैसे करोगे?’’
   श्री मुकुट सक्सेना ने सवाल जड़ा-‘‘ग़ज़ल में शे, रदीफ, काफिया आदि होते हैं अर्थात् हर विधा का एक छन्द-विधन होता है तो तेवरी का फार्मेट क्या है?’’
   इस विषय में हमने बार-बार निवेदन किया कि जब किसी वस्तु या विधा का कथ्य या चरित्र बदल जाता है अर्थात् वह वस्तु अपना मूल चरित्र त्यागकर, नया चरित्र अपनाती है तो नये चरित्र के अनुसार ही उसका मूल्यांकन किया जाता है और किया जाना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि इस नये चरित्र के अनुरूप उसे नया नाम भी दिया जाए। तेवरी में कहानी, उपन्यास की घुसपैंठ के सवाल या तेवरी की तकनीकी व्यवस्था का प्रश्न उठाने वालों से हमने सिर्फ इतना कहा कि-‘‘अगर ग़ज़ल का अर्थ प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत ही है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं तो क्या पूरा रीतिकालीन या छायावादी काव्य को इसकी परिधि में ले लेना चाहिए? शिल्प का अर्थ मात्र तुकान्त ही नहीं होते। कथ्य बदलने के बाद शिल्प में भी आमूल परिवर्तन आते हैं। उस विधा की रस-व्यवस्था, भाषा-शैली, मुहावरेदारी, प्रतीकात्मकता, आलंकारिकता भी बदल जाती है। तेवरी की तकनीकी व्यवस्था को ग़ज़ल की तकनीकी व्यवस्था सिद्ध  करने वालों से निवेदन किया कि अगर यह तकनीकी व्यवस्था इतनी ही महत्वपूर्ण [ या सबकुछ ] है तो हज्ल के बारे में उनकी क्या राय है?
   अस्तु! हमारा विरोध न हज्ल से है न ग़ज़ल से और न हम इन विधाओं की  [ इनके ही संदर्भ में ] सार्थकता को संदिग्ध बना रहे हैं। हमारा विरोध तो कथ्य के संदर्भ में  उस चरित्र के घालमेल से है, जिसमें भाले की चुभन, आलिंगन समझी जाती है। अनीति का विरोध, शृंगार का बोध बन जाता है। जिसमें  दुराचार के प्रति आक्रोशऔर प्रेमिका से मिलने का तोषएक ही कहलाता है, जिसमें बलात्कारी-व्यभिचारी भी शृंगारी नजर आता है। जिसमें वार भी अभिसार ही बनकर उभरता है। जिसमें बहेलिए का तीर, प्रेम-वाण की तासीर लेकर पंछी की हत्या करता है।
   चरित्रों के इस घालमेल को स्पष्ट करते हुए हमने बार-बार दुहराया कि माना स्त्री, स्त्री ही होती है, लेकिन उसे बाल्यावस्था में बालिका या बच्ची कहा जाता है, थोड़ी बड़ी होती है तो किशोरी बोली जाती है, अपनी परिपक्व अवस्था में वह युवती कहलाती है, बाद में वह प्रौढ़ा और वृद्धा बोली जाती है। जब उसका विवाह हो जाता है तो पत्नी के नाम से शोभा पाती है। बच्चों को जन्म देने के बाद माँ कहलाती है। प्रसव-पीड़ा से वंचित स्त्री बाँझका दर्जा पाती है।
   माना औरत, औरत ही होती है लेकिन विभिन्न संदर्भों  में चाची, ताई, मौसी, बूआ, मम्मी, ननद, सास, बहू क्यों कहलाती है? यह चरित्र की लीलाओं का ही कमाल है कि हम चरित्रहीन औरत को कुलटा, कलंकिन, डायन, नगर-वधू , गणिका, वैश्या, पांचाली आदि पुकारते हैं, जबकि सद्चरित्रा औरत, देवी, सती, सावित्री, मां स्वरूपा आदि-आदि संज्ञा-विशेषणों की हकदार बन जाती है। चरित्र विशेष के आधार पर दिये गये नाम क्या स्त्री के व्यक्तित्व को खंडित करने की साजिश माने जाने चाहिए? या चरित्र-परिवर्तन के बाद व्यक्तित्व के सही मूल्यांकन के आधार? एक समझदार चिंतक इस नाम परिवर्तन के सार्थकता को अवश्य समझेगा। लेकिन जिनके पास समझने के लिए कुछ है ही नहीं, वे ग़ज़ल और तेवरी में किये गये ऐसे अंतरों पर सही उत्तर देकर ओखली में अपना सर देना ही क्यों चाहेंगे?  
   तेवरी और ग़ज़ल में किये गये इस अंतर की सार्थकता और गंभीरता को न समझते हुए बडे़ ही अगम्भीर तरीके से एक कुतर्क हिंदी ग़ज़ल के विद्वान साहित्यकार श्री रतीलाल शाहीन ने दिया-‘‘नाम बदल देने से गुण या स्वभाव नहीं बदल जाते।’’
[आजकल, मार्च-2000, पृ0 21 ]
   शाहीनजी के इस कथन में जब थन ही नहीं, तो तर्क का पौष्टिक दुग्ध् ढूंढने से फायदा ही क्या? माना नाम बदल जाने से गुण या स्वभाव नहीं बदल जाता। किंतु गुण या स्वभाव बदल जायें तो? ऐसे में चुंबन और क्रंदन में फर्क नहीं किया जाना चाहिए? क्या स्त्री को उसका विवाह होने के बाद पत्नीन पुकारा जाये? क्या औरत संतान को जन्म देने के बाद माँकहलाने की हकदार नहीं? क्या परिपक्व अवस्था को प्राप्त स्त्री को बच्ची ही कहा जाए? एक ही पति की अवैध पत्नियाँ सौतनया रखैलनहीं कही जातीं? कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई, यदि प्यालों के स्थान पर तलवार थाम ले, तब क्या उसे वीरांगना कहना किसी अज्ञान का घोतक है?
   वस्तुओं या विधाओं के परिवर्तन के बाद, इस परिवर्तन का सही मूल्यांकन न करना, एक अधोमुखी चिंतन नहीं तो और क्या है? तेवरी के भविष्य की चिंता करने के बजाय, ग़ज़ल के समर्थर्कों को ग़ज़ल की टांग-पूँछ की समझ में व्यापकता का समावेश करना चाहिए। उन्हें इस तथ्य की सार्थकता को पहचानना चाहिए कि ग़ज़ल की हू--हू तकनीकी व्यवस्था को कायम रखते हुए भी हज्ल, ग़ज़ल से कैसे और क्यों अलग है? अगर ग़ज़ल का शिल्प ही महत्वपूर्ण होता तो प्रेमपूर्ण बातचीत की शालीनता, प्रेमपूर्ण बातचीत की अश्लीलताका योग एक ही बोध को बोता। ग़ज़ल से हज्ल अलग हुई और उसे मान्यता भी मिली। इस प्रमाण पर ग़ज़लकारों के विचारों की चूल क्यों नहीं हिलीं?
   ग़ज़ल से हज्ल अगर सिर्फ कथ्य के आधार पर पृथक हो सकती है तो तेवरी की ग़ज़ल से अलग पहचान क्यों नहीं हो सकती? इस विषय में अन्धे और सारहीन विरोध की झागदार वकालत से अलग कोई सार्थक तर्क या तथ्य क्यों नहीं सामने आ रहा है? हर कोई बस यह क्यों चिल्ला रहा है कि-‘‘अभी जुबां कटी नहीं [ तेवरी संग्रह ] की भूमिका में आग उगलता आक्रोश, ‘तेवरीको ग़ज़ल, हिन्दी ग़ज़ल से पृथक् नाम से, केवल कथ्य के आधार पर ही प्रतिष्ठित करने के लिए उतावला है जो कि अनुचित है, क्योंकि संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठकर कथ्य एवं कला शिल्प के बदलते तेवर की मूलभूत विशेषताओं की अवहेलनाओं को केन्द्र बनाकर किसी काव्य-विधा की बात नहीं की जा सकती है।’’ [ डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, प्रसंगवश फरवरी-94, पृष्ठ 37 ] या
‘‘तेवरी की स्थिति ऐसी ही है जैसे प्रयोगवाद के समय में नकेनवादया प्रपद्यवादकी हुई थी। उन्होंने अपने को सही प्रयोगवादी माना और प्रयोग को ही साध्य घोषित किया। कुछ ही समय में इन कवियों का जिक्र हाशिये पर रह गया और आन्दोलन नष्टप्रायः।’’
[ डॉ. संतोषकुमार तिवारी, प्रसंगवश, फर. 94, पृ.45 ]
   अगर कथ्य या शिल्प के आधार इतने ही अनुचित या संकीर्ण हैं, जैसा कि डॉ. सत्यप्रेमी बतलाते हैं तो चुटकुला से लघुकथा के अन्तराधारों में कौन-सी उदारता है? नाटक और एकांकी के अन्तर की सार्थकता क्या है? ग़ज़ल और हज्ल के अन्तर में कौन-सी संकीर्णता मुखर है?
   एक सही मूल्य के, सही मूल्यांकन का प्रयास [ नकेनवाद और प्रयोगवाद या प्रपद्यवाद की तरह ] बकवास भले ही सिद्ध हो जाये, इसमें आश्चर्य और चिन्ता जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। क्रान्तिकारियों को गांधीवादियों ने हमेशा आतंकवादीकहा। एक सही राष्ट्रीय विचारधारा को आज भी वह स्थान नहीं मिला, जिस स्थान पर गांधीजी की विचारधारा फल-फूल रही है। अहिंसा के मंत्र आज भी जनता को अराजकता, शोषण, यातना के विरुद्ध भीरू और कायर बनाने में अपनी वीभत्स भूमिका का निर्वाह करने में लगे हैं। मार्क्सवाद, पूँजीवाद के सामने आज दम तोड़ रहा है। धर्म  के पाखंडी, अधर्म को सार्थक और सारगर्भित ठहराने में कामयाब हो रहे हैं। क्या इस आधार पर भगतसिंह जैसे महापुरुषों का चिन्तन अप्रांसगिक हो जाता है? नहीं। इसलिए चिंता यह नहीं होनी चाहिए कि किस आन्दोलन का भविष्य क्या रहेगा? चिन्तन का विषय यह होना चाहिए कि हम वस्तुओं या उनके व्यवहार का मूल्यांकन क्या सही तरीके से कर रहे हैं अथवा नहीं ?
   इन बातों को कहने का यह आशय कदापि नहीं डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी या डॉ. सन्तोष कुमार तिवारी पर हम किसी प्रकार की अज्ञानता या अपरिपक्वता का आरोप जड़ रहे हैं। हमारे लिए दोनों ही श्रद्धेय हैं। हमारा निवेदन बस इतना है कि तेवरी की धारा, ग़ज़ल की धारा के समान या उससे निकलती हुई-सी जरूर महसूस होती है, लेकिन यह धारा उन सूखे हुए खेतों की ओर जाती है, जो समूची मानवता के लिए अन्न, फल, फूल, वस्त्र और छप्पर देते हैं। इस धारा में शराबियों के लिए सुरा जैसी मादकता वाला पेय नहीं। रोगी मानसिकता का उपचार करने वाला सुजल है। यह कैसे ग़ज़ल की नकल है? कहीं से किधर से भी कोई सार्थक तथ्य अब तक क्यों सामने नहीं आ रहा है? हर कोई सिर्फ यह कहकर ही क्यों तेवरीकारों को गरिया रहा है कि-‘‘तेवरीकार स्वयं को महान साबित करने की कोशिश में तमाशगीर जमूरे की तरह चीख-चिल्लाकर भ्रामक, बचकाने बयान देकर भीड़ जुटा रहे हैं, जो ग़ज़ल की महफिल में इज्जत न बचा सके, वे तेवरी के मैदान में दौड़ लगाने लगे हैं... तेवरी का भविष्य अकविता, विचार-कविता, नवगीत की तरह अन्धकारमय ही है। परिणाम वही होगा, तेवरी, कमअक्लों, अनपढ़ों की बात के समान ही माननी होगी।
[ तारिक असलम तस्नीम, तेवरीपक्ष-3, पृ.9 ]
   ‘‘तेवरी पढ़कर हमारे भी तेवर बदल गये हैं, बस हाथों में ले लिया डंडा। अब आप बताइये किसके सर पर दे मारूं?’’
[ कालीचरण प्रेमी, तेवरीपक्ष-3,पृ.8 ]
   ‘‘समझदार हो गये हो तेवरी के साथ, सुधरने का क्या लोगे? पहले सामान्य आदमी बनो, साहित्यकार तो बन ही जाओगे।
[ नन्दल हितैषी, तेवरीपक्ष-7 ]
   उपरोक्त सारे बयानों की विशेषता यह है कि इनमें तेवरी और ग़ज़ल के बीच किये गये भेद के आधारों पर तो कोई सार्थक बहस नहीं की गयी है और न यह बतलाया गया है कि इन आधारों के कारण तेवरी ग़ज़ल ही है।
लगता यह है कि ग़ज़ल के समर्थकों के पास तेवरीकारों को कोसने, उन्हें आदमी बनने की सलाह देने, डंडा उठाकर सर पर दे मारने के अतिरिक्त कोई तर्क है ही नहीं। अगर कथ्य के आधार पर ग़ज़ल से हज्ल का व्यक्तित्व, अस्तित्व पृथक किया जा सकता है तो तेवरी को ऐसे आधारों पर अलग किया जाना, भ्रामक, दुर्भाग्यपूर्ण, बचकानापन, जमूरापन या महान साबित करने का एक अन्ध जुनून कैसे हो गया? इसके लिए कोई तर्कसंगत उत्तर कभी समाने आयेगा? यह वैचारिक-स्खलन हमें  कहाँ ले जायेगा?
   ऐसे में हम पुनः जोर देकर एक ही बात कहना चाहेंगे कि-ग़ज़ल और तेवरी के बीच अन्तर करने का यह प्रयास, ग़ज़लपन को खारिज करने की कोई कोशिश न पहले थी, न अब है और न यह मुद्दा बहर, रदीफ-काफिये, मतला-मक्ता, शेर की स्वच्छन्दता और निश्चित अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था की खींचतान का है। यह मुद्दा तो एक सही मूल्य के सही मूल्यांकन का है। ग़ज़ल किसी छन्द विशेष, तकनीकी विशेष या फार्म विशेष का नाम नहीं। अगर ऐसा होता तो ग़ज़ल से हज्ल कैसे पृथक की जाती? चिन्तन के इस बिन्दु पर अगर धीरेन्द्र शर्मा जैसे सुधी लेखकों या विद्वानों को अब भी यह शिकायत रहे कि-‘‘तेवरी, ग़ज़ल के फार्म में ही क्यों लिखी जा रही है?’’ तो इसमें बेचारे तेवरीकार कर ही क्या सकते हैं??
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001
मो.-9634551630